-2018 से शुरू हुआ संघर्ष, 2024 में मिली सफलता
Pravin Kumar
Ranchi: गुमला जिले के चैनपुर प्रखंड स्थित केडेग गांव के आदिवासियों और मूलवासियों के लिए सामुदायिक वन पट्टा की प्राप्ति केवल एक कागजी अधिकार नहीं, बल्कि उनके जीवन और आजीविका में बड़ा बदलाव लेकर आई है. 2006 में झारखंड में लागू हुआ वनाधिकार कानून भले ही अपनी स्थिति में पूरी तरह प्रभावी न हो, लेकिन केडेग गांव ने इस कानून का लाभ उठाकर एक मिसाल पेश किया है.
संघर्ष का आरंभ और सामुदायिक प्रयास
सामुदायिक वन पट्टा की प्रक्रिया 2018 में शुरू हुई. गांव के 145 आदिवासी और 55 गैर-आदिवासी परिवारों ने मिलकर वन पट्टा के लिए आवेदन दिया. कई बार प्रयास असफल रहे, लेकिन फिया फाउंडेशन संस्था ने ग्रामीणों का साथ देकर इस प्रक्रिया को पुनर्जीवित किया. संस्था के सहयोग से दावे के आवेदन पुनः जमा किए गए और आखिरकार 2024 में गांव को सामुदायिक वन पट्टा प्राप्त हुआ. गांव के वन प्रबंधन समिति के अध्यक्ष शांति प्रकाश खलखो बताते हैं कि हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजों के समय से जंगल बचाने के लिए संघर्ष किया है. 2018 के बाद से लगातार जंगल का क्षेत्र बढ़ रहा है और हम सभी मिलकर इसे संरक्षित करने का काम कर रहे हैं.
जंगल की समृद्धि: 20 हजार पौधे व चेक डैम का निर्माण
वन पट्टा मिलने के बाद ग्रामीणों ने 20,000 से अधिक फलदार पेड़ लगाए. इस सामूहिक प्रयास ने न केवल जंगल का क्षेत्रफल बढ़ाया, बल्कि गांव में हरियाली और वन उपज में भी वृद्धि की. अब गांव के लोग चेक डैम और तालाब बनाने की योजना पर भी काम कर रहे हैं. वन विभाग भी इस प्रयास में सहयोग कर रहा है. ग्रामीण प्रेमलता एक्का कहती हैं कि वन पट्टा मिलने के बाद हमारी ग्रामसभा मजबूत हुई है. महिलाएं जागरूक हुईं, बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं और गांव के लोग खुद योजनाएं बनाकर उसे लागू कर रहे हैं. इससे गांव में ठेकेदारी प्रथा खत्म हो गई है.
वन उपयोग के लिए बनाए गए नियम
गांव में सामुदायिक वन के उपयोग के लिए सख्त नियम बनाए गए हैं. किसी भी पेड़ या लकड़ी के उपयोग के लिए वन प्रबंधन समिति से अनुमति लेनी पड़ती है. शादी-विवाह के लिए सखुआ के पौधे और कड़ (मुख्य लकड़ी) लेने की अनुमति दी जाती है. चोरी-छिपे लकड़ी काटने वालों को ग्राम सभा द्वारा दंडित किया जाता है. नए पेड़ों की सुरक्षा के लिए पालतू जानवरों के जंगल में जाने पर रोक है.
वन्यजीवों की वापसी और जंगल का पुनर्जीवन
सामुदायिक वन पट्टा के तहत जंगल का सीमांकन किया गया और पेड़ों की कटाई पर रोक लगाई गई. इसके परिणामस्वरूप जंगल सघन हो गया और मोर, लोमड़ी, जंगली बिल्ली, सुअर जैसे कई जानवर फिर से जंगल में दिखने लगे. ग्रामीण अब औषधीय पौधों की पहचान और संरक्षण पर भी काम करने का मन बना रहे है.
गांव में बदलाव: आत्मनिर्भरता और समृद्धि
वन पट्टा ने गांव में ठोस बदलाव किए हैं. प्रति परिवार सालाना 10,000 रुपये तक की वन उपज का उपयोग किया जा रहा है. भूमिहीन परिवारों को तीन महीने की आजीविका वन उपज से मिल रही है. ग्राम सभा सशक्त हुई है और महिलाएं गांव की योजनाओं में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं. ठेकेदारी प्रथा खत्म हो गई है और ग्रामीण स्वयं काम कर रहे हैं.
केडेग गांव: एक मिसाल
गुमला जिले का केडेग गांव सामुदायिक वन पट्टा के महत्व को दर्शाने वाला एक प्रेरक उदाहरण है. यहां के लोग न केवल जंगल को बचाने में सफल रहे हैं, बल्कि अपनी संस्कृति, आजीविका और समुदाय की समृद्धि को भी बढ़ावा दे रहे हैं. शांति प्रकाश खलखो के शब्दों में, “दुनिया के लिए यह सिर्फ जंगल है, लेकिन हमारे लिए यह जीवन है. सामुदायिक वन पट्टा ने हमें संवैधानिक अधिकार ही नहीं, बल्कि हमारे जंगल, आजीविका और भविष्य को बचाने का अवसर भी दिया है.” वन पट्टा दिलने में सहयोग करने के लिए पुनः फिया फाउंडेशन और झाऱखंड सरकार को धन्यवाद देते है.
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