Saraikela/Kharsawan : चक्रधरपुर के विधायक सुखराम उरांव ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को एक जनवरी को पीडब्ल्यू गेस्ट हाउस में ज्ञापन सौंपा. इसमें खरसावां शैली छऊ नृत्य के विकास और उसे राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने की मांग की गई है. ज्ञापन में कहा गया है कि न केवल खरसावां, बल्कि पश्चिमी सिंहभूम के सोनुआ, गोइलकेरा, मनोहरपुर, बंदगांव, चक्रधरपुर सहित कई अन्य प्रखंडों के सैकड़ों कलाकार खरसावां शैली छऊ का प्रदर्शन करते हैं. इस क्षेत्रीय कला में नृत्य कला की सभी विशिष्टताएं होने के वावजूद अब तक इसे वह पहचान नहीं मिल पाई है जिसका वह हकदार है. कोल्हान यूनिवर्सिटी के सिलेबस में छऊ की सरायकेला शैली को तो शामिल किया गया, परंतु खरसावां शैली को नहीं. मात्र सरायकेला में आयोजित होने वाले छऊ महोत्सव में इस शैली की प्रतियोगिता का आयोजन एवं कला-संस्कृति, खेलकूद एवं युवा कार्य विभाग द्वारा खरसावां में 30 कलाकारों के प्रशिक्षण की व्यवस्था से ही इस कला का उत्थान संभव नहीं है.
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ज्ञापन में कहा गया है कि इस संस्थान में वर्ष 2021 के अप्रैल माह से प्रशिक्षण कार्य बंद है और कलाकारों का वर्ष 2019-20 का मानदेय भी नहीं मिला है. अप्रैल 2021 से बंद पड़े छऊ नृत्य कला केन्द्र खरसावां सहित अन्य केन्द्रों में प्रशिक्षण कार्य पुनः प्रारंभ करने, कलाकारों के वर्ष 2019-2020 के बकाया मानदेय का तत्काल भुगतान करने, कोल्हान यूनिवर्सिटी के सिलेबस में छऊ की खरसावां शैली को भी शामिल करने, छऊ की अन्य शैलियों की तरह खरसावां शैली छऊ को भी झारखंड की कला शैलियों में शामिल कर इसके उत्थान और पहचान के लिए कार्य योजना बनाने की मांग की गई.
चक्रधरपुर, सोनुवा एवं बंदगांव प्रखंडों में प्रशिक्षण केंद्र खोला जाए
ज्ञापन में कहा गया है कि न केवल खरसावां बल्कि चक्रधरपुर, सोनुवा और बंदगांव प्रखंडों में भी खरसावां शैली कला केन्द्रों की स्थापना कर कलाकारों को प्रशिक्षण दिया जाए. सुखराम उरांव ने कहा कि अपनी कला संस्कृति को राजधर्म मानने वाली हमारी झारखंड सरकार राज्य की अन्य कलाओं की तरह खरसावां शैली छऊ के विकास और पहचान बनाने के लिए आवश्यक कदम उठाएगी. झारखंड, पश्चिम-बंगाल और ओडिशा के सीमावर्ती क्षेत्र में अवस्थित सरायकेला-खरसावां एवं पश्चिमी सिंहभूम जिले के सैकड़ों गावों में छऊ नृत्य कला प्रचलित है. यह कला न केवल क्षेत्र के कला प्रेमी जनता का मनोरंजन का साधन है, बल्कि धार्मिक मान्यताओं और पूजा परंपराओं से जुड़े रहने के कारण ईश अराधना का माध्यम भी है. चैत्र माह के प्रारंभ से ही गांव के चौपालों में आसर का निर्माण कर ग्रामीण इस कला का प्रदर्शन करते हैं. कोल्हान को केवल छऊ कला के माध्यम से सात पद्मश्री पुरस्कार दिला चुकी यह कला न केवल कोल्हान बल्कि झारखंड के लिए भी एक अमूल्य धरोहर है. यूनेस्को ने इस कला को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रुप में मान्यता दी है.