Shyam Kishore Choubey
पांचवीं झारखंड विधानसभा का सात दिवसीय अंतिम 17 वां सत्र दो अगस्त को संपन्न हुआ. राज्य में लगातार तीसरे वर्ष सूखे पर इस सत्र में सार्थक चर्चा होनी थी, लेकिन हंगामे की भेंट चढ़ निरर्थक हो गई. इससे परे मतांतरण, बेरोजगारी, अनुबंधकर्मियों के नियमितीकरण जैसे मुद्दों पर 31 जुलाई को सदन में ऐतिहासिक हंगामा हुआ. प्रतिपक्षी एनडीए में भाजपा के 24, आजसू के तीन तथा एनसीपी के एक सदस्य हैं. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर वादाखिलाफी का आरोप मढ़ प्रतिपक्ष तत्काल जवाब मांगने पर आमादा हो गया. मुख्यमंत्री ने कहा कि वे जवाब देंगे, लेकिन नेता प्रतिपक्ष अमर बाउरी का कहना था, सत्र के अंतिम दिन मुख्यमंत्री अपनी बातें कह चलते बनेंगे, ऐसा हम नहीं होने देंगे. जवाब अभी चाहिए. ऐसा न होना था, न हुआ. प्रतिपक्षी सदस्य वेल में धरना देने लगे. सदन की कार्यवाही समाप्त होने के घंटों बाद मार्शलों ने उनको निकाल बाहर किया तो वे लॉबी में जम गए. देर शाम मुख्यमंत्री उनको मनाने पहुंचे, लेकिन बात बनी नहीं. देर रात मार्शलों ने उनको लॉबी से बाहर कर दिया तो वे सीढ़ियों पर जम गये. जो टिके, वे पोर्टिको में सो रहे.
भाजपा के कतिपय विधायकों ने सोशल मीडिया पर वीडियो क्लिप जारी कर बताया कि उनको अंधेरे में रखा गया है, एसी बंद कर दिया गया है. उनको बंधक बना लिया गया, जबकि सत्ता पक्ष का कहना था कि प्रतिपक्षी विधायकों ने सदन को बंधक बना लिया. समझते रहें, कौन बंधक बना. पिछले हफ्ते कर्नाटक में प्रतिपक्षी भाजपा विधायकों ने विधानसभा में ऐसे ही रात भर धरना दिया था. इसके पहले बिहार में दो मर्तबा सरकार के विरुद्ध प्रतिपक्ष ने सदन में रात्रि धरना दिया था. 2020 में तीन कृषि कानूनों को राज्यसभा में बिना चर्चा पारित कराये जाने के विरोध में प्रतिपक्षी सांसदों ने संसद के बाहर रात भर धरना दिया था. सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप पर साल भर बाद एनडीए सरकार ने इन कानूनों को वापस ले लिया था. संसद के उसी कार्यकाल के अंतिम दिनों में 146 विपक्षी सांसदों को निलंबित किया गया था. झारखंड विधानसभा में भी इस बार कुछ ऐसा ही वाक्या पेश आया.
जब विपक्षी विधायक दूसरे दिन यानी पहली अगस्त को भी सदन के अंदर हंगामे पर आमादा हो गए, वेल में मांगपत्र की प्रतियां फाड़ने लगे तो एकसाथ 18 भाजपा विधायकों को दो अगस्त के दो बजे दिन तक के लिए निलंबित किया गया. संसद की कार्यवाहियों के आईने में क्या भाजपा इस विधानसभा की कार्यवाहियों पर गौर फरमा पाएगी? संसद में प्रतिपक्ष यानी गैर एनडीए दलों/सदस्यों की जो गतिविधियां असंसदीय मानी जाती हैं, विधानसभा में उनसे कहीं बढ़कर किये जा रहे कृत्य कैसे संसदीय मर्यादाओं के अनुकूल माने जाएंगे? ‘अघोषित आपातकाल’ की दो परिभाषाएं नहीं हो सकतीं न!
24 साल पहले झारखंड राज्य के गठन के समय माननीयों ने भरोसा दिलाया था कि यहां की विधानसभा को आदर्श बनायेंगे. सारा आदर्श बहुत जल्द भरभरा गया. चलते सत्र में सत्ताधारी कई माननीय-सम्माननीय अपोजिशन बेंच पर बैठकर तख्ता पलट का खेल-तमाशा करते नजर आये. आसन पर रखा राष्ट्रीय ध्वज फेंक दिया. कभी आसन की ओर जूते-चप्पल उछाले गये. हाल के वर्षों में शायद ही ऐसा कोई सत्र गुजरा हो, जो केवल और केवल जनता के सवालों को लेकर संजीदगी से चला हो.
राजनीतिक दलों और सरकारों के वादों पर इस सत्र में एनडीए ने सही रास्ता दिखाया है. चुनाव सन्निकट है. सभी उम्मीदवारों से, खासकर जो विधायक रह चुके हैं, जनता को सवाल करना चाहिए कि उनकी और उनके दल की परफार्मेंस कैसी रही, जो उन पर कुर्बान हुआ जाय. पूर्व के चुनावी वादों का हिसाब लिया जाय, सदन में अबतक की सभी 13 सरकारों केे आश्वासनों का हिसाब लिया जाय और यहां तक कि कैबिनेट फैसलों का भी हिसाब लिया जाय. सदन में विभिन्न सरकारों के सैकड़ों आश्वासन कोरे साबित हो चुके हैं. प्रतिपक्ष को सत्ता पक्ष से जवाब पाने का बेशक हक है. अवाम को अपने विधायक-सांसद से जवाब पाने का उससे ज्यादा हक है. हक यह पूछने का भी है कि वे जिनको दल विशेष के लिए चुन कर माननीय बनाते हैं, वे रातोंरात सर्वथा विपरीत गुण-धर्म वाले दल में कैसे और क्यों मतांतरित हो जाते हैं. उनके इस मतांतरण से सेवकाई के चुनावी वादे का तालमेल कैसे है.
झारखंड विधानसभा में माननीयों का ताजा कृत्य परंपरागत संवैधानिक प्रक्रिया के तहत कतई नहीं आता. सत्ता पक्ष हो कि प्रतिपक्ष, चाहे जितना गाल बजा ले, यह एक काला अध्याय ही था. चुनावी फायदे के लिए राजनीतिक दल और नेता क्या-क्या नहीं कर गुजरेंगे? जनता कोई सवाल न कर भी सब समझती है. यह वही जनता है, जो हर चुनाव में अमूमन 50 फीसदी विधायकों को घर बैठने को विवश कर देती रही है.
पुनश्च: ऐसा भी नहीं है कि झारखंड में सारा कुछ चंगा है जी, लेकिन सवाल तो बनता ही है. असम के मुख्यमंत्री और झारखंड के चुनाव सह प्रभारी हिमंता विस्वा सरमा को पहली अगस्त को पाकुड़ के गोपीनाथपुर जाने से प्रशासन ने कानून-व्यवस्था के नाम पर रोका तो उनका कहना था कि भारत का नागरिक हूं, कहीं भी जा सकता हूं. कुछ ही महीनों पहले जब राहुल गांधी को असम के श्रीश्री शंकरदेव मंदिर जाने से कानून-व्यवस्था के नाम पर रोका गया था, तब क्या इन्हीं सरमा महोदय को याद नहीं था कि राहुल भी भारत के नागरिक हैं. झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठ समस्या है तो क्या यही समस्या असम में नहीं है? वहां एनआरसी-एनआरसी क्यों खेला जा रहा है?
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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