Nishikant Thakur
आजादी के बाद जब वर्ष 1951-52 में चुनाव हुए, तो उस समय देश में बड़ी विपरीत परिस्थितियां थीं. समाज में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या बहुत कम थी. उन्हें वोट देने का अनुभव तक नहीं था, जबकि संसाधनों की भी घोर कमी थी, लेकिन उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सबमें एक जुनून था. चुनाव बिना किसी हो-हंगामे के सम्पन्न हुआ. देश के पहले चुनाव आयोग सुकुमार सेन थे. उस चुनाव को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी उन्हीं पर डाली गई थी. लंबे समय तक चुनाव चले और वह सफल भी रहा. पहला चुनाव अलग-अलग नहीं, बल्कि लोकसभा और विधानसभा के एकसाथ ही कराए गए थे. देश और राज्यों की सरकारें बनीं. तत्कालीन नेताओं ने देश को विश्व में गरिमामय स्थान दिलाने के लिए कटिबद्ध थे, इसलिए सभी देशहित के लिए प्राणपण से जुट गए. हां, बैलेट पेपर से कराए गए चुनाव लंबे होते थे और मतगणना में भी काफी समय लग जाता था, लेकिन परिणाम देर से ही सही, निष्पक्ष आते थे. इसी दौरान यह भी नियम बना दिया गया था कि केवल यह बात कि किसी पार्टी की भी सरकार है, तो इससे उसे चुनाव के दौरान कोई विशेषाधिकार नहीं मिल जाता है. सरकारी अधिकारी अपना काम निष्पक्ष ढंग से ही करें. देश तीव्र गति से विकसित होने लगा. फिर नया कुछ करने का समय आ गया और लगभग 42 वर्ष पहले सुविधा और विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) से चुनाव की प्रक्रिया शुरू की गई.
इतिहासकार और प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल लिखते हैं कि ‘लोकतांत्रिक चुनावों का सारा मकसद बड़ी-बड़ी समस्याओं पर मतदाताओं के विचार को समझना और मतदाताओं को उनके प्रतिनिधियों को चुनने की ताकत प्रदान करना है. सभी पार्टियां जनता के सामने अपना हर कार्यक्रम रखती हैं और अपने कार्यक्रम की अच्छाइयों का जोरदार तरीके से प्रचार-प्रसार करती हैं. साथ ही दूसरों के कार्यक्रमों की कमियों को भी उजागर करती हैं. परस्पर विरोधी दृष्टिकोण मतदाताओं को जागरूक बनाने, उन्हें शिक्षित करने के लिए होता है, ताकि वह सही उम्मीदवार को चुनने में सक्षम हो सके.’ लेकिन, अब ऐसा कहां हो रहा है! चुनाव में जनता को शिक्षित करने के स्थान पर सत्तारूढ़ का एकपक्षीय प्रहार होता है. उन्हें जातियों में बांटा जाता है, हिंदू-मुस्लिम करके समाज को बांटने की बात की जाती है और कहा जाता है कि यदि ‘बंटोगे तो कटोगे.’ क्या इससे समाज शिक्षित हो रहा है?
जहां हिन्दू-मुस्लिम साथ बैठकर खाना खाते थे, जहां समाज में आपसी भाईचारे का गहरा रिश्ता था, वहीं अब धीरे-धीरे समाज में इतनी कटुता बढ़ गई है कि आप अपने दोस्तों से बात करेंगे या उनके घर जाएंगे, तो मन में एक अघोषित भय बना रहता है कि कहीं यह दोस्त दगाबाजी न कर दे. ऐसा पहले कभी नहीं होता था, लेकिन देश के विकास के लिए चुनाव कराए जाते रहे हैं, लेकिन कुछ वर्षों में अब ऐसा लगने लगा है कि यह तो केवल सत्तारूढ़ द्वारा केवल खानापूर्ति करने के लिए ही हो रहा है, क्योंकि सारा कुछ तो पूर्व में निर्धारित कर लिया गया है. ऐसे में यदि सत्तारूढ़ तानाशाह हो जाए, तो कोई संदेह नहीं.
पिछले कुछ वर्षों में चुनाव में हुई धांधली को लेकर कितनी बातें की गईं, लेकिन क्या हश्र हुआ? जब से ईवीएम से चुनाव शुरू हुए, उसे लेकर कई आरोप लगे, लेकिन चुनाव आयोग की ओर से उसे किस तरह नजरअंदाज और खारिज किया गया, सभी मुद्दों पर अपने को बेदाग बचा लिया गया. हल्ला तो वही करता है, जिसकी हार होती है. चुनाव जीतने वाले सफाई भला क्यों देंगे? ऐसा ही देखा गया है कि हर बार विपक्ष द्वारा ही पराजित होने पर ईवीएम या चुनाव आयोग पर आरोप लगाए जाते रहे हैं. विपक्ष द्वारा आरोप लगाया जाता रहा है कि ईवीएम को हैक कर लिया जाता है और आप किसी भी पक्ष के लिए उसका बटन दबाएंगे, वह सत्तारूढ़ के पक्ष में चला जाएगा. यानी, विपक्ष का साफ कहना है कि केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए ईवीएम का मतलब ‘एवरी वोट फॉर माइन’ तो नहीं है और वह इसी एजेंडे के तहत देश में हर तरह के चुनाव कराती है! हालांकि, विपक्ष के तमाम आरोपों से चुनाव आयोग सदैव इनकार करता रहा है और खुद ही अपने को पाक-साफ भी घोषित कर लेता है. इसलिए तो अब तक भाजपा, चुनाव आयोग या ईवीएम पर जितने भी आरोप लगे, सबमें ‘तीनों’ बेदाग निकला. यहां तक कि चुनाव आयोग ने कई बार सार्वजनिक मंच यह दिखाने का प्रयास भी किया कि ईवीएम को हैक नहीं किया जा सकता, लेकिन हारने वाले पक्ष द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि पेगासस के दौर में यह संभव ही नहीं, कटु सत्य है कि ईवीएम को भी आसानी से हैक किया जा सकता है.
अभी पिछले दिनों हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए. चूंकि जम्मू-कश्मीर में पिछले दस वर्षों से कोई सरकार नहीं थी, केंद्र सरकार की सत्ता ही वहां चलती थी जिससे जनता घुटन महसूस करने लगी थी. फिर जब चुनाव हुआ, तो अपनी खुन्नस निकालकर अपने मन मुताबिक नेताओं को चुना और अब इंडिया गठबंधन की सरकार बन गई है और चल रही है. लेकिन, अब प्रश्न यह उठता है कि क्या इस चुनी हुई सरकार को अपना कार्यकाल पूरा करने दिया जाएगा? ऐसा इसलिए कि कई राज्यों में पिछले कुछ वर्षों में बनी-बनाई सरकार बदल दी गई और केंद्रीय सत्तारूढ़ का कमल खिल गया. अब रही हरियाणा चुनाव में ईवीएम की शिकायत की बात.
चुनाव आयोग को हरियाणा का मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस द्वारा बीस स्थानों पर ईवीएम की धांधली की शिकायत दर्ज कराई गई है. वैसे, अखबारों में छपी खबरों की मानें, तो इसका जवाव चुनाव आयोग ने तैयार कर लिया है और इसी सप्ताह वह अपने ऊपर लगाए सभी आरोपों का उत्तर देश को देने के लिए तैयार कर लिया है. वैसे, यह कयास ही होगा कि क्या किसी तथाकथित शिकायत को वह सही ठहराएगा? वैसा ही हुआ . चुनाव आयोग ने अपनी 1600 पन्नों की रिपोर्ट देते हुए हरियाणा के नतीजों को लेकर कांग्रेस के आरोप को निराधार और बेबुनियाद बताया है . ऐसा आज तक नहीं हुआ कि सरकारी अधिकारी द्वारा कोई संविधान विरोधी बातें या काम किया गया हो और उसका उत्तर वह शुद्ध अंतःकरण से सही दिया हो? वह भूल स्वीकार करके अपनी विश्वसनीयता को जनता के कठघरे में खड़ा कर लेगा? ऐसा आज तक नहीं हुआ है और न आगे ऐसी आशा की जानी चाहिए. उत्तर वही ढाक के तीन पात की होगा और यही कहा जाएगा कि आयोग की ओर से कोई चूक नहीं हुई.
अब रही महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा के कुछ ही समय बाद होने वाले चुनाव की बात. तो जनता कितना भी प्रयास कर ले, होगा तो वही, जो केंद्रीय सत्तारूढ़ दल और चुनाव आयोग चाहेगा. महाराष्ट्र में पहले भी तो केंद्र सरकार के विपक्ष की सरकार बनी थी, लेकिन क्या हुआ? पूरी सरकार को ही तहस-नहस कर दिया गया और आज त्रिशंकु कहिए या असंवैधानिक सरकार वहां काम कर रही है. आज भी कोई इस बात को दावे से नहीं कह सकता कि जनता द्वारा दिए गए सही निर्णय का पालन किया जाएगा. इसी तरह रही झारखंड में होने जा रहे चुनाव की बात, तो वहां भी तो लगभग यही स्थिति है.
वहां तो संवैधानिक रूप से गठित सरकार की कौन कहे, मुख्यमंत्री तक जेल भेज दिए गए और जब कानून ने अपना काम किया, तो मुख्यमंत्री बेगुनाह साबित हुए, लेकिन अब क्या तब तक तो देर हो चुकी थी और तीर चलाए जा चुके थे. जो भी हो, अब कुछ भी हो, यदि जनता की यह मांग है, तो उसकी बात क्यों नहीं मानी जानी चाहिए? जनता और विपक्षी का विश्वास यदि ईवीएम से उठ गया है, तो क्यों नहीं बैलेट पेपर से चुनाव कराए जा सकते हैं! हां, यह ठीक है कि वह खर्चीला है और समय भी ज्यादा लेता है, तो ऐसा करके एक बार देखा तो जा ही सकता है कि क्यों कुछ अधिकारियों के बहकावे में आकर देश को आंतरिक कलह के लिए उकसाया जा रहा है. ध्यान रहे, जनता का फैसला ही आखिरी फैसला होता है, फिर जिस दिन जनता की समझ में यह बात आ जाएगी, उस दिन सब रास्ते पर अपने आप आ जाएंगे.
डिस्क्लेमर: लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं,ये इनके निजी विचार हैं.
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