Pravin Kumar
Latehar: झारखंड के लातेहार जिले के महुआडंड़ प्रखंड का पुटरुंगी गांव एक समय वीरान पड़ा था. चार दशक पहले यहां घने जंगल हुआ करते थे, लेकिन वन विभाग की कूप कटाई और लकड़ी तस्करों की लूट ने इसे उजाड़ दिया. जंगल के उजड़ने से न केवल पर्यावरण को नुकसान हुआ, बल्कि यहां रहने वाले आदिवासी समुदाय की आजीविका भी प्रभावित हुई.
लेकिन हार मानने के बजाय, गांव के लोगों ने जंगल को फिर से जीवित करने की ठानी. सामूहिक प्रयासों से उन्होंने जंगल को बचाने और संवर्धित करने का बीड़ा उठाया. उन्होंने न केवल जंगल की पहरेदारी शुरू की, बल्कि वन प्रबंधन समिति बनाकर जंगल से मिलने वाले संसाधनों का उचित प्रबंधन भी किया. अब वे सरकार से सामुदायिक वन पट्टा की मांग कर रहे हैं, ताकि जंगल पर उनका कानूनी अधिकार मिल सके और वे अपनी आजीविका को और मजबूत कर सकें.
कहां है पुटरुंगी गांव?
लातेहार जिले के महुआडंड़ प्रखंड में, झारखंड-छत्तीसगढ़ की सीमा के करीब स्थित पुटरुंगी गांव में करीब 102 आदिवासी परिवार रहते हैं. इनमें उरांव, भूइहार, मुंडा, कुनहार, लोहरा और किसान समुदाय के लोग शामिल हैं. यहां रोजगार के अभाव में अधिकांश पुरुष पलायन कर चुके हैं, जिससे गांव में महिलाओं और बुजुर्गों की संख्या अधिक है.
कैसे शुरू हुआ जंगल बचाने का संघर्ष?
गांव के बुजुर्ग याद करते हैं कि कूप कटाई के कुछ सालों बाद जंगल पूरी तरह उजड़ चुका था. इसके बाद फसलों पर जंगली जानवरों का हमला बढ़ गया और जड़ी-बूटियां, जिनसे लोग पारंपरिक इलाज करते थे, मिलनी मुश्किल हो गईं. करीब 40 साल पहले, इन समस्याओं से परेशान होकर गांव के लोगों ने जंगल को बचाने की मुहिम शुरू की. उन्होंने सामूहिक रूप से जंगल की रखवाली करनी शुरू की. गांव के हर घर से लोग अपनी पारी में जंगल की सुरक्षा के लिए जाते हैं.
सिर्फ तय समय पर ही ग्रामीण सूखी लकड़ियां इकट्ठा करते हैं और वन प्रबंधन समिति की अनुमति से ही मडवा (मकान निर्माण) के लिए पेड़ काटते हैं. गांव की वन प्रबंधन समिति साल में एक बार बांस की कटाई कर उसकी बिक्री करती है, जिससे करीब 50,000 रुपये की आमदनी होती है. इस राशि से सामुदायिक जरूरतों के सामान जैसे बर्तन, टेबल, कुर्सियां और दरियां खरीदी जाती हैं. बची हुई राशि वन प्रबंधन समिति के खाते में जमा की जाती है.
सामुदायिक वन पट्टा की मांग
वन प्रबंधन समिति के सचिव कमलेश्वर कुमहार बताते हैं कि उन्होंने पहले भी सामुदायिक वन पट्टा के लिए आवेदन किया था, लेकिन वह फाइल सरकारी दफ्तरों में गुम हो गई. अब वे फिर से व्यवस्थित तरीके से आवेदन करने की योजना बना रहे हैं. उनका मानना है कि सामुदायिक वन पट्टा मिलने के बाद जंगल का बेहतर प्रबंधन किया जा सकेगा और इससे ग्रामीणों को अधिक लाभ मिलेगा.
ग्रामीणों की झारखंड सरकार से मांग है कि उन्हें सामुदायिक वन पट्टा दिया जाए, ताकि वे जंगल से मिलने वाले कंद-मूल, जड़ी-बूटियों और अन्य वन उपज को कानूनी रूप से एकत्र कर अपनी आजीविका सुधार सकें.
वन अधिकार कानून और आदिवासियों का संघर्ष
वन प्रबंधन समिति के अध्यक्ष प्रीतम टोप्पो का कहना है कि झारखंड में वन-अधिकार अधिनियम 2006 (FRA) को लागू करने की बात तो हर सरकार ने की, लेकिन जमीनी हकीकत में कुछ खास बदलाव नहीं हुआ. आदिवासियों ने जल, जंगल और जमीन के लिए संघर्ष किया, लेकिन जब झारखंड राज्य बना, तब भी उन्हें जंगल पर मालिकाना हक नहीं मिला. पुटरुंगी गांव के लोग चाहते हैं कि सरकार उन्हें सामुदायिक वन पट्टा दे, ताकि वन विभाग की रोक-टोक खत्म हो और जंगल से रोजगार और आजीविका के साधनों को सही तरीके से संचालित किया जा सके.
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