Satyendra Ranjan
लोकसभा चुनाव के दौरान ही ये बात जाहिर हो गई कि ‘विकसित भारत’ का नारा लोगों को उत्साहित या आकर्षित नहीं कर रहा है. इसके प्रति लोगों की उदासीनता का आलम यह था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के अन्य नेताओं ने पहले चरण के मतदान के बाद अपने प्रचार अभियान में इस थीम को हाशिये पर डाल दिया. इसके विपरीत हिंदुत्व का डोज (खुराक) बढ़ाने का दांव उन्होंने चला. वह भी कितना कारगर रहा, यह चार जून को आए चुनाव नतीजों से जाहिर हो चुका है. यह निर्विवाद है कि लोकसभा के चुनाव का प्रमुख कथानक महंगाई, बेरोजगारी, अवसरहीनता आदि जैसे ठोस और रोजमर्रा की जिंदगी की जुड़े मुद्दों से तय हुआ. इसके बावजूद अपने तीसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी सरकार ने ‘विकसित भारत’ अपना थीम बनाए रखा है तो यही कहा जाएगा कि हकीकत से आंख मिलाने का साहस या क्षमता उसमें नहीं है. पिछले महीने संसद के साझा सत्र में दिए अपने अभिभाषण में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने एलान किया था कि 2024-25 के बजट में सरकार ‘विकसित भारत’की कार्यसूची पेश करेगी.
23 जुलाई को पेश बजट को मोदी सरकार ने ‘विकसित भारत की तरफ यात्रा का रोडमैप’कहा है. इसमें पेज-दर-पेज ‘विकसित भारत की प्राथमिकताएं’ बताई गई हैं.यानी जो जुमला चुनाव अभियान में लोगों को लुभा नहीं सका, जिस पर लोगों ने यकीन नहीं किया, उसे ही इस बजट का मुख्य विषयवस्तु बनाया गया है. इसलिए यह सवाल विचारणीय हो जाता है कि आखिर किसी अर्थनीति और विकास नीति का मकसद क्या होना चाहिए? उनकी सफलता का पैमाना क्या होना चाहिए? बीसवीं सदी के आरंभ में जब सोवियत क्रांति के साथ समाजवाद सपनों की रूमानी दुनिया से उतर कर जमीनी हकीकत का रूप लेना लगा तो पहली बार तत्कालीन पूंजीवादी और अन्य व्यवस्थाओं के सामने भी अपना लक्ष्य तय करने और कुछ सपने जगाने की चुनौती पेश आई थी. क्या पूंजीवाद आधारित ‘लोकतंत्र’खुद में सामाजिक एजेंडा जोड़ कर समाजवादी क्रांति का विकल्प पेश सकता है, यह बहस खड़ी हुई थी. उसी दौर में जॉन मेनार्ड कीन्स ने अर्थनीति संबंधी अपनी समझ दुनिया के सामने रखी, जो धीरे-धीरे पूरे पूंजीवादी विश्व का स्वीकृत आर्थिक एजेंडा बन गई. कीन्स की आर्थिकी ने “क्रांतिकारी समाजवाद”के विकल्प के रूप में “शांतिमय प्रगति आधारित लोकतांत्रिक पूंजीवाद”के लक्ष्यों और उन्हें हासिल करने के मार्ग की व्याख्या की थी.
बताया गया कि इस अर्थनीति का पालन करते हुए संपूर्ण रोजगार हासिल किया जा सकता है. जब हर व्यक्ति के पास सम्मानजनक रोजगार होगा, तो उसका जीवन स्तर क्रमिक रूप से उठेगा और समाज समृद्ध एवं खुशहाल बनेगा. ऐसे समाज में आमदनी बढ़ने के कारण कर उगाही भी स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी, जिससे सरकारें जन-कल्याण एवं पुख्ता सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था कर सकेंगी. यानी कुल सोच यह थी कि पूंजीवाद धन पैदा करेगा, जो धीरे-धीरे रिस कर निचले तबकों तक पहुंचेगा. इस तरह सभी खुशहाल होंगे. इस आर्थिकी को कार्यरूप देने के लिए कीन्स ने अर्थव्यवस्था में सरकारों की सक्रिय भूमिका की वकालत की थी. सामाजिक लक्ष्य तय करना और उन्हें हासिल करने की तरफ समाज को ले जाना सरकारों की लोकतांत्रिक जिम्मेदारी मानी गई. फुल इंप्लायमेंअ इन लक्ष्यों में सर्व-प्रमुख था.
पूंजीपति और धनिक तबकों ने अपनी नव-उदारवादी मुहिम के तहत इसी सोच पर हमला बोला. 1980 का दशक आते-आते उनकी यह मुहिम कामयाबी की राह पर चल निकली. 1990 के दशक में इस सोच और इस पर आधारित आर्थिकी का लगभग सारी दुनिया में प्रसार हो गया. 1991 में यह आर्थिकी भारत पहुंची और आज उसका सबसे विद्रूप चेहरा हमारे सामने है. ताजा बजट ने यही दिखाया है कि नरेंद्र मोदी सरकार में इस विद्रूपता से भारत की इच्छाशक्ति और समझ का सिरे से अभाव है. बेरोजगारी और महंगाई जैसे प्रश्नों पर वह नव-उदारवादी फॉर्मूलों पर पुनर्विचार करने तक को तैयार नहीं है. चूंकि हाल के आम चुनाव में इन दोनों समस्याओं के कारण उसे गंभीर झटके लगे, इसलिए वह इस दिशा में कुछ करते तो दिखना चाहती है, लेकिन सचमुच कुछ करना नहीं चाहती! महंगाई के सवाल पर तो उसने आत्म-समर्पण कर दिया है.
इस बात का प्रमाण 22 जुलाई को संसद में पेश 2023-24 की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में मिला. इसमें खाद्य पदार्थों की ऊंची महंगाई दर का जिक्र किया गया और इसका कारण आपूर्ति संबंधी दिक्कतों को बताया गया. रिपोर्ट में कहा गया हैः ‘अक्सर खाद्य पदार्थों की महंगाई का कारण मांग से संबंधित नहीं, बल्कि आपूर्ति से संबंधित है.’ तो इस रिपोर्ट के जरिए सरकार ने दलील दी है कि ब्याज दरें बढ़ा कर महंगाई पर काबू पाने का तरीका मौजूदा खाद्य महंगाई के संदर्भ में कारगर नहीं होगा. इसलिए भारतीय रिजर्व बैंक से सिफारिश की गई है कि वह खाद्य पदार्थों के अलावा बाकी मुद्रास्फीति दर पर गौर करे, जो अब नियंत्रण में है. यानी वह ब्याज दरों में कटौती शुरू कर दे. मतलब, सरकार मानती है कि खाद्य पदार्थों की महंगाई इसलिए है कि किसान पर्याप्त मात्रा में अनाज, सब्जियों और अन्य खाद्य पदार्थों का उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं. क्या यह सच है? क्या इस बात को स्वीकार किया जा सकता है?
दरअसल, आज की मोनोपॉली नियंत्रित अर्थव्यवस्था के दौर में महंगाई सिर्फ मांग और आपूर्ति के आपसी संबंध से तय नहीं हो रही है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसाबेला बेवर जैसी अर्थशास्त्री और भारत के संदर्भ में रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने अपने अनुसंधानों से यह साबित किया है कि महंगाई का एक बड़ा कारण मोनोपॉली घरानों की मुनाफाखोरी है. भारत में आढ़तियों के माध्यम से मोनोपॉली घराने अनाज, फल और सब्जियों आदि के बाजार भाव को प्रभावित या नियंत्रित कर रहे हैं. मगर इस नजरिए से महंगाई को देखने और और उसका समाधान ढूंढने का साहस सरकार (वैसे तो लगभग सारे राजनीतिक दलों) में नहीं है. इसीलिए पहले ब्याज दरों में कटौती को एकमात्र उपाय माना गया और उद्योगपतियों की मांग के दबाव में आकर खाद्य महंगाई को नजरअंदाज करते हुए ब्याज दर घटाने की सलाह उसने रिजर्व बैंक को सरकार ने दी है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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