Faisal Anurag
कोबरा, श्मसान, आंतकवादी किसान और स्कूटी गिर गयी जैसे जुमले चुनावों के पहले नफरत की दीवार खड़े कर रहे हैं. बंगाल के अलावे जिन चार राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहां भी नफरत उगलते मर्यादाहीन जुमलों का प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है. केरल में भी अमित शाह के जुमलों का तीखा जबाव पिनरायी विजयन दे रहे हैं.असम हो या पुडुच्चेरी या फिर तमिलनाडु राज्य के नेताओं की भाषा तमाम लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का मजाक बना रही है. तो क्या यह जानबूझ कर नहीं किया जा रहा ताकि इस समय जब देश में किसानों का एक ऐतिहासिक आंदोलन परवान पर है उसकी चर्चा को ही बहस से बाहर कर दिया जाए.
2017 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की पूरी दिशा ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कब्रिस्तान बनाम श्मसान और दिवाली बनाम ईद के जुमलों से बदल दी गयी थी. इसी तरह गुजरात के पिछले चुनाव में भी अंतिम दौर में मणिशंकर अय्यर और डॉ मनमोहन सिंह को निशाना बना कर सांप्रदायिक शब्दावली का इस्तेमाल हुआ था. इसका असर यह हुआ कि हवा बदल गयी थी. दरअसल इस तरह के जुमलों का इतिहास गुजरात में पुराना है. 2002 के बाद के चुनावों की भाषा को याद किया जा सकता है, जिसमें हर चुनाव को सांप्रदायिक बनाया गया. यह वही गुजरात है जिसके मॉडल की खूब चर्चा होती रही है.
बंगाल में चुनावों के दौरान हिंसा का इतिहास तो है, लेकिन भाषा को पतन का एक नया सिलसिला शुरू हुआ है. हालांकि 2019 के लोकसभा चुनावों में भी इसकी छाप देखने को मिली थी. लेकिन विधानसभा चुनावों के तो तमाम रिकॉर्ड ही ध्वस्त हो रहे हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ तो धर्मनिरपेक्षता को ही विकास की राह में बाधा बताते हुए उस पर हमला कर रहे हैं. जब कि मुख्यमंत्री बनने के पहले जो शपथ ली जाती है उसमें संविधान की रक्षा करने की बात अंतरनिहित है. जाहिर है कि संविधान की प्रस्ताव का यह उल्लंघन है जिसमें भारत के सेकुलर बताया गया है.
केरल में इस समय राजनीतिक माहौल बेहद गर्म हो चुका है. गृहमंत्री अमित शाह और केरल के मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन एक दूसरे पर तीखे हमले कर रहे हैं. अमित शाह ने विजयन पर गोल्ड तस्करी के आरोप को लेकर मुख्यमंत्री पर निशाना साधा है तो विजयन ने पलटवार करते हुए कहा, अमित शाह सांप्रदायिकता का अवतार बताते हुए कहा है कि वे सांप्रदायिकता के पोषण के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. केरल के चुनावों में आमतौर पर जनमुद्दों पर चर्चा का इतिहास है. केरल को राजनीतिक रूप से परिपक्व माना जाता है. लेकिन इस विधानसभा चुनाव को हिंद्दी पट्टी की तरह मुद्दाविहीन बनाने का प्रयस किया जा रहा है. वैसे माना जा रहा है कि केरल में भाजपा कमजोर दावेदार है, बावजूद इसके कि उसने एक 87 साल के व्यक्ति को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया है. केरल दक्षिण का दूसरा राज्य है, जहां भाजपा के 75 साल के रिटायरमेंट नियम को ताक पर रख दिया गया है. इसके पहले कर्नाटक में यदुरप्पा इसके पहले अपवाद थे.
अमित शाह पुडुच्चेरी में भी अपनी उसी जुबान का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसके लिए विजयन ने तीखे शब्दों का इस्तेमाल किया है. विजयन ने तो अमित शाह का हवाला देते हुए कहा है ”मुझे अपहरण के लिए जेल में नहीं रखा गया था. जिसने हत्या (अपहरण) आदि के गंभीर अपराधों का सामना किया है. आपने ऐसे मामलों का सामना किया है. वे झूठे मामले नहीं थे, जैसा कि आप (राज्य पर) के लिए प्रयास कर रहे हैं. गवाह की मौत के बारे में स्मोकस्क्रीन बनाने की कोशिश न करें.”
तमिलनाडु में तो द्रमुक बनाम अन्ना द्रमुक के टकराव का इतिहास है. भाजपा की कोशिश है कि वह अन्नाद्रमुक के साथ मिल कर अपनी स्थिति मजबूत करे. इसके साथ ही वहां के चुनावी माहौल में भी ऐसे शब्दों के प्रयोग आम हो रहे हैं, जिसमें पहले से भी ज्यादा कटुता है. तमिलनाडु में भाजपा अन्नाद्रमुक से अलग हुए दिनाकरण को गठबंधन में लाने में कामयाब नहीं हुई, न ही अभिनेता कमलहासन के शहरी प्रभाव को अपने पक्ष में करने में कामयाब हो पायी है. कमल हासन तो किसानों के सवाल को प्रमुखता से उठा रहे हैं.
केरल और तमिलनाडु में सरकारी कंपनियों के निजीकरण की राह खोलने और कृषि कानूनों का असर भी है. इसके साथ ही मंहगाई के सवाल भी है. इस राज्य में यह प्रमुख सवाल है कि क्या भाजपा अन्नाद्रमुक और केंद्र सरकार के एंटीइंकैवेंसी को रोक पाएगी.
नफरत और ध्रुवीकरण वाले जुबानों के बावजूद किसानों के आंदोलन के असर का इन चुनावों में वोटरों पर असर को कम कर नहीं देखा जा सकता. अब जबकि किसान नेताओं ने भी भाजपा को हराने की अपील की है और किसान नेता चुनावी राज्यों का सघन दौरा करने का एलान कर चुके हैं. तरकश से जो चुनावी जूमले निकल रहे हैं, उससे वोटरों के रूझान की दिशा का परिणाम का आकलन अभी से नहीं किया जा सकता है.