Arvind Jayatilak
इजरायल-लेबनान और रुस-यूक्रेन संघर्ष के बीच पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में संपन्न संघाई को-ऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) शिखर सम्मेलन के जरिए भारत ने एक बार फिर आतंकवाद, अलगाववाद और चरमपंथ के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है. सम्मेलन में शामिल भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर ने बिना नाम लिए मेजबान देश पाकिस्तान और उसके आका चीन को आड़े हाथों लेते हुए दो टूक कहा कि आतंकवाद, अलगाववाद और चरमपंथ के खतरे तीन बड़ी चुनौतियां हैं, जिसके कारण व्यापार और कनेक्टिविटी की समस्या उत्पन्न हो रही है. उन्होंने एक ईमानदार बातचीत की पहल की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि अगर दोस्ती कमतर पड़ जा रही है और एक अच्छे पड़ोसी के धर्म निभाए जाने की कमी है तो ऐसे में खुद के भीतर झांकने की जरूरत है. उन्होंने यह भी कहा कि हर किसी की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान किया जाना जरूरी है. गौर करें तो विदेशमंत्री एस जयशंकर ने एससीओ के मंच से इशारे-इशारे में ही पाकिस्तान और चीन दोनों को चेता दिया कि वे पड़ोसी होने का धर्म नहीं निभा रहे हैं और इस क्षेत्र में तनाव के लिए मुख्य रूप से वे ही जिम्मेदार भी हैं. विदेशमंत्री एस जयशंकर ने चीन की महत्वाकांक्षी ‘वन बेल्ट वन रोड’ पहल का समर्थन करने से भी इंकार कर दिया.
जानना आवश्यक है कि इस परियोजना में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा शामिल है, जो पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के हिस्से से होकर गुजरता है, जिसे लेकर भारत की गहरी आपत्ति है. अब भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के तमाम देश भी चीन के इस प्रोजेक्ट की जमकर आलोचना कर रहे हैं. इसलिए कि इसमें शामिल अधिकांश देश चीनी कर्ज के बोझ तले दबते जा रहे हैं. पाकिस्तान की भी कोशिश थी कि एससीओ के जरिए माहौल को अनुकूल बना भारत से वार्ता के जरिए नजदीकियां बढ़ाई जाएं. लेकिन विदेशमंत्री ने पाकिस्तान जाने से पहले ही भारत के पुराने रुख कि टेरर और टॉक साथ-साथ नहीं चल सकते पर अडिग रहने का फैसला कर लिया था. पाकिस्तान एससीओ की मेजबानी करके बहुत उत्साहित है और अब उसकी कोशिश विश्व बिरादरी में अपनी छवि सुधारने की होगी.
लेकिन उसे समझना होगा कि जब तक वह आतंकवाद को प्रश्रय देना बंद नहीं करेगा, उसकी छवि सुधरने वाली नहीं है. रही बात एससीओ के भविष्य की तो यह काफी कुछ इस बात पर निर्भर रहेगा कि भारत को लेकर पाकिस्तान और चीन का रवैया क्या रहता है.
वैसे हर बार की तरह इस बार भी एससीओ शिखर सम्मेलन से उम्मीद किया जाना चाहिए कि इस सम्मेलन से क्षेत्रीय सुरक्षा की चुनौतियों से निपटने के अलावा आर्थिक विकास को गति देने, व्यापार, निवेश, अंतरिक्ष, स्वास्थ्य सुविधाओं, कृषि, सूचना एवं संचार प्रौद्यागिकी के क्षेत्र में विस्तार को नया आयाम मिलेगा. जाहिर है कि यह क्षेत्र एक बहुत बड़ा उपभोक्ता बाजार है, जिसमें भारत की भूमिका का लगातार विस्तार हो रहा है. एससीओ में भारत की प्रभावी भूमिका से इस क्षेत्र में उभर रही आतंकी गतिविधियों से अंतरराष्ट्रीय खतरों, अवैध ड्रग कारोबार, जैसी चुनौतियों से निपटने और सदस्य देशों को गोलबंद करना आसान होगा.
एससीओ में भारत की सहभागिता पर नजर दौड़ाएं तो 2018 में चीन के तटीय शहर किंगदाओ में संपन्न शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में पहली बार शिरकत करने का मौका मिला. इससे पहले बतौर पर्यवेक्षक की भूमिका में ही था. कजाकिस्तान की राजधानी अस्ताना में संपन्न सम्मेलन में भारत की स्थायी सदस्यता पर मुहर लगी और महज पांच वर्षों में भारत ने अपनी धारदार भूमिका से एससीओ के चरित्र को बदल दिया. आज की तारीख में यह संगठन विश्व की तकरीबन आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन बन चुका है. चूंकि इस संगठन ने संयुक्त राष्ट्र संघ के अलावा यूरोपीय संघ, आसियान, कॉमनवेल्थ और इस्लामिक सहयोग संगठन से भी संबंध स्थापित किए हैं. इस नाते भारत की भूमिका और अधिक व्यापक हो जाती है. गौर करें तो अभी तक एससीओ पर चीन का वर्चस्व रहा है, लेकिन अब भारत की अर्थव्यवस्था चीन के मुकाबले तेजी से आगे बढ़ रही है, ऐसे में संगठन में भारत की भूमिका और स्वीकार्यता दोनों बढ़ी है.
इस कारण चीन के व्यापक प्रभाव में कमी और दृष्टिकोण में बदलाव आ रहा है. एससीओ के दबाव के कारण चीन आतंकिस्तान बन चुके पाकिस्तान को प्रश्रय तो दे रहा है, लेकिन उसे शर्मसार भी होना पड़ रहा है. चूंकि एससीओ के सदस्य देशों का भारत से अति निकटता है, ऐसे में उम्मीद की जा रही है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की स्थायी सदस्यता को लेकर चीन के रुख में बदलाव आ सकता है. ऐसा इसलिए कि संघाई सहयोग संगठन के सभी सदस्य देश मसलन रूस, कजाखिस्तान, किर्गिस्तान, उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन कर चुके हैं. अगर चीन समर्थन करता है तो भारत को स्थायी सदस्यता मिल सकती है. लेकिन सच्चाई यह है कि चीन कभी नहीं चाहेगा कि भारत को स्थाई सदस्यता मिले. संघाई सहयोग संगठन के इतिहास में जाएं तो अप्रैल, 1996 में शंघाई में हुई एक बैठक में चीन, रूस, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान आपस में एकदूसरे के नस्लीय और धार्मिक तनावों से निपटने के लिए सहयोग करने को राजी हुए. तब इस संगठन को शंघाई फाइव कहा गया.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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