Manoharpur (Ajay singh) : सुदूरवर्ती सारंडा के घने जंगलों में रहने वाले आदिवासी आज भी दो जून की रोटी के लिए कंधे
पर या साइकिल पर भारी बोझ लेकर 15 से 20 किलोमीटर चलने को विवश हैं. रोज़गार के अभाव में ग्रामीणों को जलावन की लकड़ियां बेचने की मजबूरी है. यह यात्रा कितनी कष्टदायक होती है इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. ये आदिवासी ग्रामीण कंधे पर या साइकिल पर लकड़ी का भारी बोझ लेकर 15 से 20. किलोमीटर दूर मनोहरपुर शहर व आस पास में ले जाकर बेचते है.
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जंगल की वस्तुओं को बेचकर करते है अपना जीवन यापन
ये इतने लाचार हैं की बस और टेम्पो का भाड़ा तक नहीं दे सकते, लकड़ी के साथ जंगल के अन्य वस्तुओं को ये लोग बाजार में बेचकर अपना जीवन यापन करते हैं, और यदि यही रकम बस और टेम्पो में भाडे़ के रूप दे दें तो इनके पास खाने के भी पैसे नहीं बचेंगे.
यह हालत उस राज्य की है जहां की धरती खनिज संपदाओं से भरी पड़ी है, इस राज्य में अब तक कई राजनीतिक पार्टियों की सरकारें आई और गई, सभी सरकारों में मुख्यमंत्री का पद आदिवासीयों ने ही सुशोभित किया है, लेकिन जंगलो में रहने वाले आदिवासी ग्रामीणों का विकास नहीं हो सका. आज भी लोग बुनियादी सुविधाओं से वंचित है. जबकि गरीबी उन्मुलन व आदीवासीयों के विकास के लिए दर्जनों योजनाएं चलाई जा रही है, ऐसे में आदिवासी बहुल राज्य के अंदर आदिवासियों का विकास नहीं होना उनके साथ बेईमानी है.
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