Ranchi : दीपावली के छठे दिन छठ पूजा का त्योहार मनाया जाता है. इस साल छठ पूजा का त्योहार 20-21 नवंबर को मनाया जायेगा. हिंदू पंचांग के अनुसार, छठ पूजा कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनायी जाती है. इस पर्व की शुरूआत नहाय-खाय से हो जाती है, जो कार्तिक माह शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को होता है. माना जाता है कि छठ का पर्व वैदिक काल से चला आ रहा है.
इस पर्व में वैदिक आर्य संस्कृति की झलक देखने को मिलती है. छठ पूजा का बहुत महत्व माना जाता है. इस पर्व को भगवान सूर्य, उषा, प्रकृति, जल, वायु आदि को समर्पित किया जाता है. यह पर्व बिहार-झारखंड के साथ पूरे देश के कई हिस्सों में धूमधाम के साथ मनाया जाता है. दूसरे देशों में बसने वाले प्रवासी भारतीयों के कारण अब ये पर्व विदेशों में भी मनाया जाने लगा है. छठ का महापर्व पूर्वांचल की संस्कृति बन चुका है. इस पर्व के संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं. चलिए जानते हैं इसके पीछे की पौराणिक कथाओं के बारे में-
महाभारत में है इसका उल्लेख
नहाय-खाय से शुरू होने वाले छठ पर्व के बारे में कहा जाता है कि इसकी शुरूआत महाभारत काल से ही हो गयी थी. एक कथा के मुताबिक, महाभारत काल में जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गये थे, तब द्रौपदी ने इस चार दिनों के व्रत को किया था.
कर्ण ने शुरू की थी छठ पूजा
अंग राज दानवीर कर्ण ने इस त्योहार पर सूर्य की उपासना की थी और मनोकामना में अपना राजपाट वापस मांगा था. इसके साथ ही एक और मान्यता प्रचलित है कि इस छठ पर्व की शुरूआत महाभारत काल में कर्ण ने की थी.
रामायण में भी है उल्लेख
छठ पर्व से जुड़ी कई अनुश्रुतियां हैं, लेकिन धार्मिक मान्यता के अनुसार, माता सीता ने सर्वप्रथम पहला छठ पूजन बिहार के मुंगेर में गंगा तट पर संपन्न किया था. इसके बाद से महापर्व की शुरुआत हुई. इसके प्रमाण-स्वरूप आज भी माता सीता के चरण चिह्न इस स्थान पर मौजूद हैं. वाल्मीकि रामायण के अनुसार, ऐतिहासिक नगरी मुंगेर में जहां सीता मां के चरण चिन्ह हैं, वहां रहकर उन्होंने 6 दिनों तक छठ पूजा की थी. प्रभु श्रीराम जब 14 वर्ष वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे, तो रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूय यज्ञ करने का फैसला लिया.
इसके लिए मुग्दल ऋषि को आमंत्रण दिया गया था. लेकिन मुग्दल ऋषि ने भगवान राम एवं सीता को अपने ही आश्रम में आने का आदेश दिया. ऋषि की आज्ञा पर भगवान राम एवं सीता स्वयं यहां आये और उन्हें इसकी पूजा के बारे में बताया गया. मुग्दल ऋषि ने मां सीता को गंगा जल छिड़ककर पवित्र किया एवं कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया.
यहीं रहकर माता सीता ने 6 दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी. ऐसी मान्यता है कि माता सीता ने जहां छठ पूजा संपन्न की थी, वहां आज भी उनके पदचिन्ह मौजूद हैं. कालांतर में जाफर नगर दियारा क्षेत्र के लोगों ने वहां पर मंदिर का निर्माण करा दिया. यह सीताचरण मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है. यह मंदिर हर वर्ष गंगा की बाढ़ में डूबता है. महीनों तक सीता के पद चिन्ह वाला पत्थर गंगा के पानी में डूबा रहता है. इसके बावजूद उनके पद चिन्ह धूमिल नहीं पड़े हैं. श्रद्धालुओं की इस मंदिर एवं माता सीता के पदचिन्ह पर गहरी आस्था है. ग्रामीण मालती देवी का कहना है कि दूसरे प्रदेशों से भी लोग पूरे साल यहां माथा टेकने आते हैं.यहां आने वाले श्रद्धालुओं की मनोकामनायें पूर्ण होती हैं. मंदिर के पुरोहित के अनुसार, सीताचरण मंदिर आने वाला कोई भी श्रद्धालु खाली हाथ नहीं लौटता.
राजा प्रियंवद ने भी किया था छठ व्रत
पौराणिक कथा के अनुसार, प्रियंवद नाम के राजा की कोई संतान नहीं थी. तब उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए यज्ञ करवाया. महर्षि कश्यप ने पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ करने के पश्चात प्रियंवद की पत्नी मालिनी को आहुति के लिए बनायी गयी खीर प्रसाद के रुप में दी. जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई, लेकिन दुर्भाग्यवश वह पुत्र मरा हुआ पैदा हुआ. तब राजा प्रियंवद का हृदय अत्यंत द्रवित हो उठा.
वे अपने पुत्र को लेकर श्मशान गये और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे. उसी समय ब्रह्मा की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और उन्होंने राजा से कहा कि वो उनकी पूजा करें. ये देवी सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हैं, इसी कारण ये षष्ठी या छठी मइया कहलाती हैं. राजा ने माता के कहे अनुसार, पुत्र इच्छा की कामना से देवी षष्ठी का व्रत किया, जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई. कहते हैं कि इसलिए संतान प्राप्ति और संतान के सुखी जीवन के लिए छठ की पूजा की जाती है.