Faisal Anurag
आंदोलित सड़क का ही यह असर है कि संसद में भी बहसों का स्वर आक्रामक हो गया है. इसका असर विपक्ष की उस आक्रमकता में भी देखा जा सकता है, जो अब खुलकर सड़कों पर आने लगा है. पिछले छह सालों से विपक्ष के अस्तित्व को लेकर ही सवाल उठाए जाते रहे हैं. मीडिया की बहसों में विपक्ष का मर्सिया गायन तो पिछले सात सालों से हो ही रहा है.
2014 में नरेंद्र मोदी जब से सत्ता में आए इस धारणा को सुनियोजित तरीके से प्रसारित प्रचारित किया गया कि भारत में विपक्ष ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है. 2014 से ही नरेंद्र मोदी कांग्रेसमुक्त भारत के बहाने तमाम विपक्षी दलों के मनोविज्ञान को प्रभावित करते रहे हैं. भारत दुनिया का इकलौता लोकतांत्रिक देश है, जहां सत्ता पक्ष के बजाय विपक्ष से ही सवाल पूछा जाता है. भारत की तमाम समस्याओं के लिए विपक्ष को ही जिम्मेदार बताया जाता है.
लेकिन पिछले चार दिनों से बजट सत्र में विपक्ष के हमलावर अंदाज का गवाह बना है. हालांकि विपक्ष तो रफाल सौदे के मामले में भी इतना ही आक्रामक था. पिछले चार दिनों में लोकसभा के दो भाषाणों की खूब चर्चा हो रही है.
पहला भाषण तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा का है, जिसमें नरेंद्र मोदी सरकार पर कायर बनाम साहसी के प्रतीकों का सहारा लेकर आग उगलते शब्दों से निशाने पर लिया गया. दूसरा भाषण कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी का है. राहुल गांधी ने हम दो हमारे दो का उदाहरण देकर सरकार पर हमला किया. हम दो से मतलब नरेंद्र मोदी और अमित शाह हैं जबकि हमारे दो का अभिप्राय अंबानी और अडाणी से है. राहुल गांधी ने कंटेंट और इंटेंट का प्रयोग कर सरकार पर तीखे हमले किये और कृषि कानूनों को केवल दो घरानों को दिया गया उपहार बताया.
किसानों के आंदोलन का ही असर है कि विपक्ष के नेताओं ने संसदीय बहसों की दिशा बदल दी है. राज्यसभा में भी डेरोक ओब्रायन और मनोज झा कम आक्रामक नहीं हैं. तो क्या विपक्ष की टूटी खामोशी किसी दूरगामी राजनीति का संकेत माना जा सकता है.
इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि विपक्ष इस समय सबसे ज्यादा असंगठित है. 2019 के चुनाव के पहले विपक्षी दलों का गठबंधन बनाने का प्रयास हुआ था. हालांकि वह प्रयास अधूरा ही था. 2019 की चुनावी हार के बाद विपक्ष बिखर गया था. 2019 के पहले गुजरात के विधानसभा चुनावों ने विपक्ष के लिए उम्मीद की किरण पैदा किया था. राजस्थान,मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावी जीत के बाद 2019 के चुनाव को लेकर दिलचस्पी पैदा हुई थी. लेकिन पुलवामा की दुखद घटना के बाद भाजपा ने अंध राष्ट्रवाद का सहारा लेकर बाजी अपने पक्ष में कर लिया था. ऐसा लगने लगा कि भारत का राजनीतिक मिजाज पूरी तरह बदल गया है. लेकिन किसानों के आंदोलन के बाद एक नए माहौल की दस्तक सुनायी देने लगी है.
किसान महापंचायतों की भीड़ ने तो विपक्ष को भी उर्जा से भर दिया है. लोकदल के जयंत चौधरी के बाद तो कांग्रेस ने भी किसानों के पंचायतों का आयोजन शुरू कर दिया है. प्रियंका गांधी को सहारनपुर में सुनने भारी संख्या में लोग आए. राहुल गांधी अगले सात दिनों में राजस्थान में पांच से ज्यादा महापंचायतों में शामिल होंगे.
इस बीच बिहार के पूर्णिया में हुई, पहली किसान पंचायत जिसे कन्हैया कुमार ने भी संबोधित किया. बड़ी संख्या में किसानों ने भागीदारी की. पंजाब, हरियाणा,उत्तर प्रदेश,कर्नाटक और बिहार के महापंचायत किसान आंदोलन के नये मिजाज और एकता का संकेतक है. महापंचायतों के राजनीतिक संदेश को गहरायी से परखने की जरूरत है. इन महापंचायतों में केंद्र की सरकार को बदलने की मांग भी उठने लगी है.
लोकसभा में महुआ मोइत्रा या राहुल गांधी को बोलने से रोकने का भरपूर प्रयास हुआ. लोकसभा के अध्यक्ष तो राहुल गांधी को बार-बार केवल बजट तक सीमित रहने के लिए टोकते रहे. लेकिन भाषण के अंत में राहुल गांधी ने यह कहकर सन्नाटा पैदा कर दिया कि 251 किसानों की मौत पर प्रोटेस्ट के तौर पर बजट पर कुछ नहीं बोलेंगे. लेकिन लोकसभा अध्यक्ष भी तब हतप्रभ रह गये, जब आंदेलन के दौर में मरे किसानों को शहीद कहते हुए दो मिनट मौन के लिए वे खड़े हो गए.
विपक्ष के ज्यादातर सांसदों ने उनका साथ दिया. भाजपा पूरी तरह सन्न रह गयी. इसके बाद लोकसभा की परंपराओं का हवाला दिया जाने लगा. लेकिन इस मौन ने यह तो साबित कर ही दिया कि विपक्ष कृषि नीति पर आर-पार करने के मुड में हैं.
किसान आंदोलन को देश का आंदोलन बताया जा रहा है जो निजीकरण के तमाम प्रक्रियाओं के खिलाफ विभिन्न तबकों को समेट रहा है. बैंको के दो बड़ी यूनियनों ने किसानों के आंदोलन का समर्थन किया है. दिल्ली की सरहदों पर किसानों के मोर्चे में बड़ी संख्या में असंगठित क्षेत्र के मजदूर भी शामिल हो रहे हैं.
1990 के बाद यह पहला अवसर होगा, जब नीति के खिलाफ जनप्रतिरोध पूरे शबाब पर है. तो क्या आक्रामक विपक्ष 1990 के बाद अपनायी गयी नीति से अपने को मुक्त कर सकेगा. इन नीतियों को लेकर भारत के तमाम राजनीतिक दलों में आम सहमति रही है. 2004 में बाजपेयी सरकार की हार में भी निजीकरण की प्रवृति ही बड़ा कारक था. विपक्ष को इस अग्निपरीक्षा से गुजरना ही होगा कि वह सड़क की आवज के अनुकूल अपनी नीतियों में हेरफेर करेगा या नहीं. बावजूद इसके निरंकुश सत्ता प्रवृति के खिलाफ विपक्ष की आक्रमकता बना रहना चाहिए.