Ranchi: रमज़ान में वर्किंग वूमेन की ज़िम्मेदारी अक्सर बढ़ जाती है. बाहर के काम के साथ घर के बुज़ुर्ग-बच्चों की देखरेख और रोज़ा. हमने शहर की कुछ कामकाजी महिलाओं से इस सम्बंध में बातचीत की. जानिए उनके अनुभव:
रोज़ा के रखते हुए वर्क का ज़ायक़ा अलग: खुशबू
शी इमपावरमेंट की खुशबू खान ने बताया कि थोड़ी दिक़्क़त ज़रूर है लेकिन रोज़ा के रखते हुए वर्क का अलग ही ज़ायक़ा है. कुदरत ने औरत को अलग ही ताक़त और हिम्मत दी है. वे सभी भूमिका बखूबी निभाती हैं.
इसी में मिलती है तसल्ली: परवीन
अल हेरा पब्लिक स्कूल डोरंडा की प्रिंसिपल, नौशाद परवीन ने कहा कि रोज़े की हालत में शुरू में क्लासेस लेने में अनमना ज़रूर लगा लेकिन अब अच्छा लग रहा. बच्चे भी समय के पाबन्द हैं. जब मुहलत मिली इबादत और तिलावत कर लेती हूँ. इफ़्तार और सेहरी का दायित्व भी घरवालों के लिए अदा करती हूँ.
अन्य दिनों की अपेक्षा बोझ अधिक: तंज़ीला
पत्रकार तंजीला नाज़ ने बताया कि कामकाजी महिलाओं पर काम का बोझ अन्य दिनों की अपेक्षा रमज़ान में बढ़ जाता है. लेकिन इसी दरम्यान काम और इबादत का सवाब भी मिलने की हसरत रहती है.समूची इंसानियत की हिफाज़त के लिए वे दुआएं करती हैं.
मुसीबत जब राहत बन जाए: फरजाना फारूकी
एक एनजीओ से जुड़ी फरजाना फारूकी बताती हैं कि रमज़ान में देर रात सोना, जगना, आफिस जाना फिर लौटकर इफ्तार बनाना, थोड़ा टफ होता है. लेकिन मुसीबत में राहत की बात ये है कि इबादत, तिलावत सुकून से घर पर करने का वो वक़्त निकाल लेती हैं.
दौड़-भाग के बीच काम के साथ रोज़ा: आबिदा इमाम
आबिदा इमाम प्रतिदिन रांची से बुंडू एक स्कूल की ज़िम्मेदारी निभाने जाती हैं. बताती हैं कि रमज़ान में दौड़-भाग अधिक हो जाया करती है. लेकिन ड्यूटी के साथ रोज़ा गुज़ारना अच्छा लग रहा. इंसान के लिए आज़माइश की घड़ी है.
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