DR. Santosh Manav
घनबाद [Dhanbad ] में एक चौराहा है या कहिए अनेक चौराहे हैं, जहां पुलिस वाले सिक्का चुनते हैं ! आश्चर्यचकित न होइए, यह रोज होता है-365 दिन. होता यह है कि साइकिल, मोटरसाइकिल, तिनपहिया पर अवैध कोयला ले जा रहे लोग, पुलिस वालों को देखते ही दस का सिक्का या दस-बीस का नोट फेंक देते हैं. कोने में दुबके पुलिस वाले तेज चाल से आते हैं, नोट-सिक्का उठाकर जेब के हवाले कर देते हैं. ठीक वैसे ही जैसे किसी शवयात्रा में सिक्के लुटाए जाते हैं और बच्चे दौड-दौड़कर सिक्का लुटते हैं. पैसा चुनने वाली पुलिस इन बच्चों से अलग नहीं. ये व्यवस्था की शवयात्रा में शामिल जमात है ! कदाचित इसीलिए लुटेरा, गुंडा जैसे शब्द पुलिस के पर्यायवाची बन गए हैं. कभी सोचा है कि वेदप्रकाश शर्मा का उपन्यास ‘ वर्दी वाला गुंडा’ की आठ करोड़ प्रतियां क्यों बिक जाती है? पुलिस की नौकरी में आ गए यानी लूट का लाइसेंस मिल गया. खुद को व्यवस्था से ऊपर का आदमी मान लिया. बदजुबानी की ठेकेदारी ले ली हो जैसे. किसी थाना में पोस्टिंग हो तो मानो लूट-केंद्र के साहब हो गए. जो भी हो, आए हो तो कुछ दे जाओ. फरियादी हो या अपराधी यह बाद की बात है. दोगे तो FIR होगी, नहीं तो आवेदन भी गायब. ऐसे ठुल्लों की जमात से कोई क्या उम्मीद करे?
‘छोटे’ सिक्का चुन रहे हैं और ‘बड़ों’ के घर बैग
कहते हैं कि धनबाद में ठुल्लों की ही फौज है. इसीलिए रंगबाजों का राज है. हर माह कारोबारियों की हत्या. रंगबाजी-रंगदारी नहीं दोगे तो कनपट्टी में पिस्तौल सटाकर दाग देंगे. 2 अप्रैल को रेलवे ठेकेदार बबलू सिंह और 29 अप्रैल को बड़े कारोबारी रंजीत साव की हत्या. पुलिस के हाथ क्या ? बबलू सिंह की हत्या में आधी-अधूरी गिरफ्तारी और रंजीत के हत्यारों को पकड़ने के लिए 72 घंटे का आश्वासन. बस, आश्वासन के भरोसे जिंदा रहिए. पुलिस अपराधियों पर लगाम लगाने के लिए नहीं है. वह व्यवस्था की लाश पर से सिक्का चुनने के लिए है या लूट के माल में हिस्सेदारी के लिए. ऐसा नहीं होता तो चाय-पान की दुकानों पर यह बतकही क्यों होती कि ‘छोटे’ सिक्का चुन रहे हैं और ‘बड़ों’ के घर बैग पहुंच रहा. बड़ों को लूट के माल में से एक बड़ा हिस्सा ऊपर तक पहुंचाना पड़ रहा है. इसलिए हत्या हो, रंगबाजी हो, कोयला लूट हो, कुछ नहीं रुकने वाला! रोकेगा कौन?
दो आईपीएस, 7 डीएसपी, 37 इंस्पेक्टर
अब यह सवाल नहीं उठाइए कि दो आईपीएस, 7 डीएसपी, 37 इंस्पेक्टर और तीन हजार से ज्यादा की फौज क्या करती है? करते हैं न, कुछ चुनते हैं, कुछ बटोरते हैं! ऐसी है हमारी धनबाद पुलिस. अपराधियों के बीच खौफ नहीं. रोज-रोज व्यापारियों को धमकी. बमबाजी, फायरिंग, दहशत. अमनपसंद कारोबारियों का जीना दूभर. डर के साए में जिंदगी. न जाने कब, कौन, कहां पिस्तौल सटा दे? मौत के लिए जिंदगी, जिंदगी के बीच मौत ? क्या है धनबाद के कारोबारियों का जीवन? सिटी आफ डेथ- मौत के शहर में कारोबार करना, गुनाह हो गया हो जैसे. यही कारण है कि गुजराती जा रहे हैं , कल को दूसरे भी जाएंगे. फिर रह जाएंगे सिर्फ रंगबाज. क्या पुलिस यही चाहती है? एक व्यवसायी नेता हैं. पढे-लिखे समझदार हैं. नाम है राजीव शर्मा. उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक से सवाल पूछा- व्यवसायी कमाते किसके लिए हैं? जवाब धनबाद की पुलिस को देना चाहिए.
नमक खाओगे, तो धमक कैसी?
एक और व्यवसायी नेता हैं. नाम है प्रभात सुरोलिया. कहते हैं-धनबाद के व्यवसायी डर के साए में जी रहे हैं. उन्हें कल का भरोसा नहीं. क्या जिंदगी ऐसी होती है? इसका जवाब भी धनबाद की पुलिस को देना चाहिए. सुरोलिया कहते हैं-रंगबाजों को पुलिस का खौफ नहीं. पुलिस चाहे, तो एक दिन में रंगदारी बंद हो जाए. पर सवाल वही है- वह चाहेगी क्यों? चुनने वाले हाथ और फैले हाथ यानी याचक की धमक नहीं होती. नमक खाओगे, तो धमक कैसी? धमक चाहिए तो नमक छोड़ दो. यह साहस कितने पुलिस वालों में है? धनबाद के व्यवसायियों को जीना है. व्यापार करना है, तो अपनी रक्षा भी खुद करनी चाहिए. पुलिस वालों के भरोसे रहेंगे, तो बबलू, रंजीत की तरह जान गवाएंगे. यह रक्षा कैसे हो, सोचें व्यवसायी और व्यवसायी संगठन. क्या एक हाथ में तराजू और दूसरे हाथ में पिस्तौल का जमाना नहीं आ गया? जवाब कारोबारियों को ही देना है. { लेखक दैनिक भास्कर सहित अनेक अखबारों के संपादक रहे हैं. फिलहाल लगातार मीडिया में स्थानीय संपादक हैं }