Basant Munda
Ranchi : झारखंड समेत देश के विभिन्न राज्यों में आदिवासी समुदायों द्वारा मनाया जाने वाला सरहुल पर्व सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति गहरे सम्मान और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है.
यह पर्व खासतौर पर झारखंड की 32 जनजातियों (उरांव, मुंडा, हो, संथाली, खड़िया, बेदिया, असुर, चेरो, खरवार, चिक बड़ाईक) बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. साथ ही, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बंगाल, बिहार, असम और मध्य प्रदेश में भी यह पर्व बहुत धूमधाम से मनाया जाता है.
बसंत का स्वागत और नई फसल की कामना
सरहुल का अर्थ है ‘साल वृक्ष का फूल खिलना’. यह पर्व फाल्गुन मास की समाप्ति और चैत माह की शुरुआत में फगुआ काटने के बाद मनाया जाता है. इसे खरीफ फसल बोने से पहले भूमि की उर्वरता और प्रकृति के पुनर्जन्म का उत्सव माना जाता है.
आदिवासी मान्यता के अनुसार, बसंत ऋतु में धरती युवावस्था में प्रवेश करती है, जिससे नये पत्ते, फूल और फल आने लगते हैं. इस पर्व में धरती को माता और सूर्य को पिता के रूप में पूजा जाता है, क्योंकि इनके संयोग से ही जीवन संभव होता है.
पूजा स्थल और विशेष अनुष्ठान :
सरहुल पर्व के दौरान गांव के पवित्र स्थल को उरांव समुदाय में ‘चाला टोंका’ और मुंडा, हो, संथाली समुदाय में ‘जाहेरथान’ कहा जाता है.
गांव के पुजारी (पाहन) और उनकी पत्नी धरती और सूर्य के प्रतिकात्मक विवाह का आयोजन करते हैं.
पूजा से एक दिन पूर्व उपवास रखा जाता है और रात में गुप्त रूप से जल अर्पित किया जाता है.
पूजा स्थल पर दो घड़े रखे जाते हैं, जिनमें सफेद धागा बांधकर भविष्यवाणी की जाती है कि आने वाले दिनों में वर्षा कैसी होगी.
पाहन की अगुवाई में तीन पवित्र मुर्गियों की बलि दी जाती है : (1) सफेद मुर्गी : धरती माता को समर्पित, (2) बरछा/रंगवा मुर्गी : गांव के रक्षक देवता दरहा को अर्पित, (3) काली मुर्गी : नकारात्मक शक्तियों को दूर करने के लिए.
नामकरण और विशेष परंपराएं
सरहुल का नाम साल वृक्ष के फूल ‘सरई फूल’ से पड़ा है, जो इस पर्व का केंद्र बिंदु है. पूजा के बाद सरई फूल और अरवा चावल प्रसाद के रूप में वितरित किये जाते हैं और खरीफ फसल की अच्छी उपज के लिए बीजों में मिलाये जाते हैं.
पर्व की भव्यता और उल्लास
- – सरहुल पर्व के दिन पूरे गांव में एक अलौकिक उत्सव का माहौल होता है.
- – पूजा स्थल से चयनित व्यक्ति को पारंपरिक रीति से कंधों पर बैठाकर गांव लाया जाता है.
- – महिलाएं पाहन के पैर धोकर उनका स्वागत करती हैं.
- – पारंपरिक व्यंजन जैसे डुबकी, छिलका रोटी और चावल परोसे जाते हैं.
- – चावल से बनी पारंपरिक मंदिरा और हड़िया भी प्रसाद के रूप में वितरित की जाती है.
- – गांव में रातभर पारंपरिक नृत्य, गीत और ढोल नगाड़ों की धुन से माहौल गूंजता रहता है.
- – अखड़ा (नृत्य स्थल) को खास रूप से सजाया जाता है.
बदलते समय के साथ सरहुल का रूप
समय के साथ सरहुल पर्व की परंपराओं में कुछ परिवर्तन हुए हैं, लेकिन इसकी मूल आत्मा प्रकृति प्रेम, संस्कृति की विरासत और सामुदायिक एकता आज भी बनी हुई है. यह पर्व हमें सिखाता है कि प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाये रखना ही वास्तविक जीवन का आधार है.
नोट : यह रिपोर्ट ‘राजी पड़हा सरना प्रार्थना सभा’ के महासचिव जलेश्वर उरांव के सहयोग से तैयार की गयी है