Shyam Kishore Choubey
यह है बिहार. पितृ तर्पण के लिए दुनिया भर में मशहूर बिहार का गया. इस जिले के गुरपा थानांतर्गत कठौतिया केवाल टोला. इस टोले में आदिम जनजाति बिरहोर के 27 परिवार रहते हैं. 18 साल पहले इनकी कुल आबादी थी 70, जो अब बढ़कर 75 हो गई है. यह जनसंख्या नियंत्रण की मिसाल है या रोग-बीमारी या कुपोषण के कारण मरनेवालों की बढ़ोतरी, बताने की बात नहीं. इन 27 परिवारों में पांचवीं से अधिक पढ़ाई कोई नहीं कर सका है. वहां की लोकप्रिय सरकार ने इन बिरहोरों के स्वास्थ्य और स्वच्छता का ध्यान रखते हुए दो सार्वजनिक शौचालय बनवा दिया. दोनों शौचालयों की छतें चोरी कर ली गईं. वहां सुशासन बाबू नीतीश कुमार का राज है, जो सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास वाली भाजपा के सक्रिय सहयोग-समर्थन से चल रहा है. यह खबर एक बड़े अखबार ने 21 जुलाई को प्रकाशित की. उसके एक दिन पहले भाजपा के चाणक्य कहे जानेवाले स्टालवार्ट नेता और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह रांची पधारे तो झारखंड विधानसभा के चुनाव का शंखनाद कर गये.
जगन्नाथ मंदिर मैदान में भाजपा की विस्तृत कार्यसमिति को संबोधित करते हुए उन्होंने झारखंड के पिछड़ेपन, खासकर आदिवासियों की बदहाली पर राज्य की इंडिया सरकार पर खूब तीर-कमान साधा. साधना भी चाहिए. यहां के प्रतिपक्षी दल के वे बड़े नेता हैं तो यह उनका राजनीतिक धर्म बनता है. झारखंड पिछड़ा है. यहां की 81 विधानसभा सीटों में 28 आदिवासियों के लिए सुरक्षित हैं. अबतक की 13 सरकारों में एक को छोड़ दें तो बाकी 12 सरकारों के मुख्यमंत्री आदिवासी ही रहे हैं. इन 12 सरकारों को छह आदिवासी मुख्यमंत्रियों ने चलाया. इन छह में तीन अभी भाजपा के ही हैं. इसके बावजूद आदिवासी आबादी बदहाल है, तो उसकी जवाबदेही बेशक इन सरकारों/मुख्यमंत्रियों पर जाती है. यानी दोनों तरफ की जवाबदेही बराबर है. आंकड़े तो यही कहते हैं. फिर भी वर्तमान सरकार इसकी जवाबदेह है, क्योंकि वह सरकार है. बिहार में आदिवासी आबादी नहीं के बराबर है, महज 1.68 प्रतिशत. इसके बावजूद देश भर में संरक्षित घोषित आदिम जनजाति बिहार में बदहाल है. इसकी भी तो जवाबदेही तय करनी होगी. देश पर भाजपा दस साल से अधिक समय से राज कर रही है, फिर भी कुल आबादी के साठ प्रतिशत से अधिक 81.5 करोड़ लोग सरकारी अनुदान के पांच किलो अनाज पर पल रहे हैं. इसकी जवाबदेही शाह महोदय को खुले मन से स्वीकार करनी चाहिए. करनी चाहिए कि नहीं करनी चाहिए?
अपने धुआंधार भाषण में अमित शाह ने कुछ आंकड़ेबाजी भी की. कहा, हाल ही हुए लोकसभा चुनाव में उनका एलायंस नौ सीटों पर जीता. इस जीत में एक अतिरिक्त उत्साह छिपा हुआ है, क्योंकि 52 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली है. दरहकीकत लोकसभा चुनाव में भाजपा को आठ सीटें हासिल हुईं, जिसमें उसे 47 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली और उसके एलांयस आजसू को एक लोकसभा सीट मिली, जिसमें उसने तीन विधानसभा सीटों पर बढ़त पाई. 2019 के लोकसभा चुनाव के आंकड़े देखें तो भाजपा 11 लोकसभा सीटों पर विजयी रही थी और उसको 57 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली थी. उसकी पार्टनर आजसू एक लोकसभा सीट पर विजयी रही थी और उसको पांच विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली थी. 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 25 सीटों पर और आजसू दो सीटों पर सिमट गई थी. लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव भले ही पांच-छह महीने के अंतर पर हुए, लेकिन बाजी पूरी तरह पलटी गई. क्या इस बार भी वैसा ही होगा! क्या इस बार वैसा नहीं होगा!! कुछ ही महीनों में सब सामने आ जाएगा.
लोकसभा चुनाव से सवा साल पहले 7 जनवरी 2023 को अमित शाह ने चाईबासा में चुनावी अंदाज में भाषण किया था. यह वह काल था, जब हेमंत सरकार द्वारा स्थानीयता के लिए विधानसभा से 1932 का खतियानी विधेयक पारित कराया गया था. इसका विरोध मधु कोड़ा और उनकी पत्नी कांग्रेस सांसद गीता कोड़ा कर रहे थे. शाह की उसी सभा के बाद यह प्रतीत होने लगा था कि कोड़ा दंपती भाजपा में चले जाएंगे. साल भर बाद ऐसा ही हुआ. विधानसभा चुनाव में देखिए आगे-आगे होता है क्या! कितने माननीय भाजपा के शरणागत होते हैं! मोदी-शाह की भाजपा के जमाने में चुनावी तैयारियां बहुत पहले कर देने की परिपाटी चल निकली है.
विधानसभा के मानसून सत्र के बाद संभव है कि अगस्त में इंडिया ब्लॉक भी चुनावी मोड में आ जाए. जो हालात हैं, उसमें देश भर में कहीं न कहीं हमेशा चुनावी बयार बहा करती है. इसके लिए बड़ी पार्टियां प्रोटोकॉल वाले अपने नेताओें को लगाये रखती हैं. उनके हर दौरे पर भारी-भरकम खर्च होता है. यह खर्च सरकारी खजाने पर भारी गुजरता है. संबंधित नेता दलीय कार्य के लिए दौरे करते हैं, लेकिन खर्च राजकोष यानी पब्लिक मनी का होता है. क्या ही अच्छा होता कि यह खर्च संबंधित पार्टी उठाती. चुनावों को जनता का, जनता के लिए कहकर जनता पर ही बोझ लादना उचित नहीं प्रतीत होता. जनता ऐसे ही टैक्स के बोझ से दबी-पिसी जा रही है. उसके पैसे से पार्टीगत कार्यों की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए, लेकिन इस बिंदु पर कोई भी राजनेता या दल ध्यान नहीं देगा. इसमें उसका स्वयं का और उसके दल का स्वार्थ अंतर्निहित है. उसके भाषण-संभाषण, रैलियों और रोड शो से यदि दल की विजय होती है तो उसका कद बढ़ जाता है. राजसी सुख भोगने वाले हमारे राजनेता जनता को जनार्दन मानते तो उसे चंद सुविधाएं मुहैया कराकर दाता भाव से पेश न आते.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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