Shyam Kishore Choubey
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 15 सितंबर को झारखंड दौरे पर थे. इन्द्रदेव ने साथ न दिया. इसलिए उनको रांची से जमशेदपुर तक तकरीबन 140 किमी कार से यात्रा करनी पड़ी. वह उनकी प्रोटोकॉल वाली कार न थी. आनन-फानन में जो व्यवस्था बन सकी, उसी से उन्होंने यह यात्रा की. ऐसा पहली बार हुआ, जब किसी प्रधानमंत्री ने झारखंड में ऐसी यात्रा की हो. उन्होंने जन सुविधा की कई घोषणाएं रांची और जमशेदपुर में की और कुछ लॉन्चिंग भी की. पीएम को रिटर्न गिफ्ट में वोट चाहिए, तो उन्होंने भी योजनाओं-घोषणाओं की सौगात दी. उनका जो भाषण था, उससे स्पष्ट होता है कि वे पॉलिटिकल मिशन पर थे. राज्य चुनाव के मुहाने पर खड़ा है. प्रधानमंत्री भाजपा से ताल्लुक रखते हैं. दलीय बंधन है तो चुनाव जीतना एक मिशन ही है. सो, उन्होंने इस मिशन पर काम किया. चाहे जो भी किया, किया तो सही. कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इधर शायद चुनाव के समय झांक-झूंक कर ले. यूं, मोदी झारखंड से योग दिवस के अलावा कई महत्वपूर्ण योजनाओं की लॉन्चिंग कर चुके हैं. यानी उनके लिए यह राज्य महत्व रखता है. वे हर वोट का हिसाब रखते हैं. जमशेदपुर की जनसभा में उन्होंने बहुत मानीखेज बातें कही.
उन्होंने झामुमो, कांग्रेस और राजद को झारखंड का दुश्मन करार दिया. कांग्रेस के लिए सीधे-सीधे कहा कि उसको इस राज्य से नफरत है और झामुमो में कांग्रेस का भूत घुस गया है. मोदी बेशक भाजपा परिवार के हैं, लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण यह कि वे देश के प्रधानमंत्री हैं और इसी हैसियत से वे यहां पधारे थे. प्रतिद्वंद्वी दलों के लिए जो कुछ कहा, उससे प्रतिद्वंद्विता के बजाय दुश्मनागत की हद तक बू आती प्रतीत होती है. शालीन शब्द प्रधानमंत्री से अपेक्षित होते हैं. वे देश के आईकॉन हैं.
झारखंड देख चुका है कि इसके ठीक पहले मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सहित केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गिद्ध, चील, कौवे जैसी उपमाओं का प्रयोग किया. राजनेता समाज के पहरुए होते हैं. उनसे अगली पीढ़ी और वर्तमान पीढ़ी प्रभावित होती है. दलगत भावना से ओतप्रोत होकर राजनेता एक-दूसरे के प्रति असम्मानजनक भाषा का प्रयोग करते हैं तो समाज में कैसी-कैसी बोली-बानी का प्रयोग होगा, यह समझा जा सकता है. वर्तमान राजनीति समाज को कौन सी दिशा दे रही है, यह उसे खुद विचारना होगा. क्या हमारे राजनेता केवल और केवल चुनावी जीत ही ध्येय बना चुके हैं? यदि हां और बेशक हां, तो मान लीजिए कि हम उस राजशाही की ओर लौट रहे हैं, जो राजगद्दी बचाये रखने के लिए या उस पर कब्जे के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. वर्तमान राजनीति में किसी अशोक की उम्मीद नहीं जगती.
इधर झारखंड की इंडिया ब्लॉक वाली सरकार ने बजट से बाहर की 25 हजार करोड़ की योजनाओं का रायता दनादन फैला दिया है. बजट में उसने 79,782 करोड़ प्लान हेड में रखा था. यानी बजट के एक तिहाई से अधिक अतिरिक्त धन वर्षा करनी है. गरीब झारखंड अचानक अमीर हो चला है. है न! 25 वर्षीय इस राज्य ने विधायकों, पूर्व विधायकों के वेतन-भत्तों पर पिछली दो जुलाई को सातवीं बार जो धन वर्षा की, उसकी बनिस्बद मईंयांओं पर हजार रूप्पली खर्चना आवश्यक लगा हो शायद. भाजपा का यही सिरदर्द है. सवाल वोट का है.
उधर अध-रजी दिल्ली के कभी एक्टिविस्ट मफलरमैन के खिताबी सीएम अरविंद केजरीवाल 177 दिनों बाद पिछले 13 सितंबर को तिहाड़ से बाहर आ गए. ईडी ने उनको शराब घोटाला मामले में अंदर किया था. बाद में पिंजरे वाले तोता यानी सीबीआई ने भी हाथ साफ कर लिया. बाहर आते ही उन्होंने अपने इस्तीफे की घोषणा की. किसी हद तक अपनी तुलना भगत सिंह और राज गुरु से की. वे गुरु राजनेता हैं. अब वे शहीदाना अंदाज में आ गए हैं. हरियाणा में चुनाव है. उनको एक तो वहां ताल ठोंकनी है, दूसरे शीर्ष अदालत ने उनको जो कर्टेन्ड बेल दी है, उसमें वे सीएम रहकर भी क्या कर लेते! सो, वैकल्पिक राजनीति का नैरेटिव पेश करने में नहीं चूके. एक इस्तीफा से दो निशाने साधने की उन्होंने चाल चली. राजनीति का कूट कर्म यही कहता है, अपनी कमजोरियों में भी मजबूती तलाश ली जाय.
हरियाणा में भाजपा, कांग्रेस में रूठने-मनाने का दौर चला तो जम्मू-कश्मीर में गठबंधन की गांठें सुलझायी गईं और वोट का दौर चल निकला. इसके तुरंत बाद महाराष्ट्र और झारखंड की बारी है.
खासकर झारखंड में निशाने पर कोल्हान की 14 और संताल परगना की 18 सीटें हैं. कोल्हान में भाजपा साफ है, तो संताल परगना में चौथाई से भी कम. पीएम का पॉलिटिकल मिशन कोल्हान से प्रारंभ हुआ. उनकी सरकार में नंबर दो के पुरुष अमित शाह 20 सितंबर को सिदो-कान्हू की धरती संताल परगना के भोगनाडीह में गरजे-बरसे. बाबूलाल मरांडी पहले ही शरणागत हो चुके थे, फिर सीता मुर्मू, चम्पाई सोरेन और लोबिन हेम्ब्रम भी आ धमके हैं. भाजपा बांग्लादेशी घुसपैठ और डेमोग्राफिकल चेंज को ब्रह्मास्त्र बना चुकी है. काश, वह स्थानीय नेतृत्व पर भरोसा कर पाती! जिसकी झोली में पांच-पांच पूर्व मुख्यमंत्री हैं, वह दिल्ली के भरोसे राजनीति पर आमादा है. अद्भुत है उसका झारखंड प्रेम. अभी बहुत से रंग बाकी हैं. राजनीति न जाने कौन-कौन से रंग दिखाये. दोनों तरफ पेंच-ओ-खम कम नहीं हैं. फिर भी इंडिया ब्लॉक के सामने गांठें अधिक हैं. एंटी इन्कम्बेंकसी भी उसको ही झेलनी है. 2014 से ही भाजपा ने जो राह दिखायी – बनायी है, उससे सीख लेना उसी को है. चुनाव को युद्ध मानो और तैयारियां पहले से करो, चाहे रंग हजार बदलो.
डिस्क्लेमर :ये लेखक के निजी विचार हैं.
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