Kumar Krishnan
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग द्वारा डॉक्टरों के लिए पर्चे पर जेनेरिक दवा लिखना अनिवार्य करने से दवा उद्योग असमंजस में है. दवा उद्योग का मानना है कि- ‘नए दिशानिर्देशों का विस्तार से अध्ययन किया जा रहा है. देश में 10,000 से अधिक दवा निर्माता हैं. इनमें सभी एक समान गुणवत्ता के मानदंडों का पालन नहीं करते हैं. ऐसे में यह कदम उठाने से दवा की गुणवत्ता और मरीज की सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन लेगा – क्या डॉक्टर जिम्मेदार होगा?’ समस्या यह है कि जेनेरिक दवाएं बेचने वाले पर्याप्त आउटलेट नहीं हैं. डॉक्टर मोलेक्यूल का नाम लिख देता है तो ऐसे में दवा विक्रेता मरीज के लिए ब्रांड का चयन करेगा. उद्योग को डर है, ‘ऐसे में ब्रांड को डॉक्टर की जगह दवा विक्रेता चुनेगा और ब्रांड चुनने की शक्ति दवा विक्रेता को स्थानांतरित होगी. ऐसे में जो भी कंपनी ज्यादा छूट देगी, दवा विक्रेता उस कंपनी को प्राथमिकता देगा.’
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने जारी दिशानिर्देश में कहा कि डॉक्टर को अनिवार्य रूप से जेनेरिक दवा लिखनी होगी और ऐसा नहीं करने पर उन्हें दंडित किया जाएगा. ऐसे में कुछ समय के लिए डॉक्टर का लाइसेंस भी निलंबित किया जा सकता है. आयोग ने हाल ही में 2 अगस्त को ‘पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टिशनर’ के व्यावसायिक आचरण से संबंधित नियम’ जारी किए थे. इसमें यह तक कहा गया है, ‘हरेक पंजीकृत मेडिकल पैक्टिशनर को दवा का जेनेरिक नाम स्पष्ट लिखना चाहिए. दवा की मात्रा तार्किक होनी चाहिए, बेवजह दवा लिखने से बचना चाहिए.’ आयोग ने अपने दिशानिर्देश में जेनेरिक दवाएं लिखने के अलावा डॉक्टरों के स्वास्थ्य संस्थानों या दवा कंपनियों से मुफ्त उपहार लेने पर भी रोक लगा दी है. इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि ‘पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टिशनर या उनके परिवार के किसी भी सदस्य को किसी भी हालत में दवा कंपनियों के प्रतिनिधियों, वाणिज्यिक स्वास्थ्य संस्थानों, चिकित्सा उपकरण कंपनियों या कॉरपोरेट अस्पतालों से मुफ्त उपहार नहीं लें.
हालांकि इसमें स्पष्ट किया गया है, ‘इन संगठनों के कर्मचारी होने की स्थिति में आरएमपी के वेतन और अन्य लाभों को शामिल नहीं किया गया है.’ जेनरिक दवा के लिए मार्जिन भी तय कर दिया गया है. इस क्रम में थोक विक्रेता के लिए 10 फीसदी और फुटकर (दवा विक्रेता) के लिए 20 फीसदी है. ऐसे में छोटी दवा कंपनियों को फायदा होगा. इसका कारण यह है कि वे अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए डॉक्टर के पर्चे की मदद नहीं लेती हैं, बल्कि प्रत्यक्ष कारोबार करती हैं. लिहाजा छोटी कंपनियों का मार्जिन बढ़ेगा. लिहाजा दवा क्षेत्र की बड़ी कंपनियां भी इस क्षेत्र में अपनी गतिविधियां बढ़ाएंगी.
भारतीय दवा बाजार की बात करें तो बिक्री वृद्धि वित्त वर्ष 2016 के 5.6 प्रतिशत से घटकर वित्त वर्ष 2023 में 0.1 प्रतिशत रह गई. केंद्र सरकार भी अपने ट्रेड जेनेरिक्स पर ध्यान दे रही है, क्योंकि उसने सस्ती दवाओं तक व्यापक पहुंच सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखा है. जन औषधि स्टोरों ने पिछले पांच साल में 54 प्रतिशत की सालाना वृद्धि दर्ज की है. जन औषधि योजना को प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना (पीएमबीजेपी) के नाम से भी जाना जाता है. जन औषधि फार्मेसी स्टोरों के जरिये जेनेरिक दवाएं बड़ी छूट पर मुहैया कराई जाती हैं. ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं की बिक्री कंपनी द्वारा अपने कर्मियों और डॉक्टर के पर्चे के जरिये की जाती है. एक ताजा रिपोर्ट में नोमुरा के विश्लेषकों ने कहा है, ‘पीएमबीजेपी के खुलासे से संकेत मिलता है कि औसत तौर पर ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं के मुकाबले छूट करीब 85 प्रतिशत होती है.
यानी किसी ब्रांडेड जेनेरिक की रिटेल कीमत जन औषधि स्टोरों की कीमतों के मुकाबले करीब सात गुना होती है. इसलिए, 1,220 करोड़ रुपये की जन औषधि बिक्री 8,540 करोड़ रुपये की ब्रांडेड जेनेरिक रिटेल बिक्री के बराबर है, जो ब्रांडेड जेनेरिक बाजार का 4.2 प्रतिशत (आईक्यूवीआईए डेटा के आधार पर) है. 30 प्रतिशत से ज्यादा वृद्धि के साथ हमारा मानना है कि जन औषधि हरेक साल भारतीय दवा बिक्री का करीब 1 प्रतिशत पर कब्जा जमा रही है. जन औषधि की बढ़ती लोकप्रियता के साथ-साथ दवा कंपनियों के ट्रेड जेनेरिक्स में वृद्धि और रिटेल फार्मेसी द्वारा प्राइवेट लेबलों से ब्रांडेड जेनेरिक की बिक्री वृद्धि प्रभावित हो रही है.’
वित्त वर्ष 2023 में देश में 9,304 जन औषधि स्टोर थे, जिसके साथ ही भारत में यह सबसे बड़ी फार्मेसी चेन बन गई है. अक्सर ट्रेड जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं के मुकाबले 50-60 प्रतिशत कम कीमत पर उपलब्ध होती हैं, क्योंकि इनसे विपणन खर्च जुड़ा नहीं होता है. मौजूदा समय में देश में 60 प्रतिशत लोगों की पहुंच किफायती दवाओं तक है, इसलिए इस क्षेत्र पर पर्याप्त ध्यान दिए जाने की जरूरत होगी. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने केवल जेनेरिक दवाएं लिखने के कदम का विरोध किया है. एसोसिएशन ने इसे रोकने की मांग करते हुए केंद्र से व्यापक चर्चा कराने की मांग की है.
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने आयोग के इस कदम को ‘गैरकानूनी’ करार दिया है. भारत ब्रांडेड जेनेरिका दवाओं का मार्केट है और यहां औषधि कंपनियां मिलते जुलते नामों से अपने उत्पाद पेश करती हैं. आईएमए के अनुसार यह अत्यंत चिंता का मुद्दा है. इससे मरीजों की देखभाल और सुरक्षा प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होती है. सही ढंग से जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है.’ आईएमए ने कहा, ‘देश में गुणवत्ता नियंत्रण बेहद कमजोर है. दवा की गुणवत्ता जांच किए बिना दवाई लिखे जाने पर व्यावहारिक रूप से कोई गारंटी नहीं होगी और यह मरीज के लिए नुकसानदायक हो सकता है. भारत में बनने वाली दवाओं में 0.1 फीसदी दवाओं की ही गुणवत्ता का परीक्षण होता है.’ महंगी दवाइयों के मद्देनजर संसद की ‘हाथी कमेटी’ की रिपोर्ट पर 1978 में नई दवा नीति बनाई गई, जिसमें तय हुआ कि हिन्दुस्तान की कम्पनियों को मदद दी जाए और विदेशी कम्पनियों को बाहर रखा जाए.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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