Arvind Jayatilak
करीने से अजब आरास्ता कातिल की महफिल है,
वो किस दावे से कहते हैं हमारा ही तो ये दिल है.
मशहूर शायर दाग देहलवी का यह शेर सियासी दलों के ऐसे सभी तकरीरों और नेक-नियति को बेपर्दा करता है, जो सैद्धांतिक तौर पर राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ तो हैं, लेकिन व्यवहारिक तौर पर दागियों के ही बगलगीर हैं. आज यह बगलगीरी और पैरोकारी सिर पर सवार नहीं होती तो लोकतंत्र के कंधे पर भी दागी सवार नहीं होते. इसे लेकर देश की अदालतों और जनमानस को चिंतित नहीं होना पड़़ता और न ही संसद और विधानसभाओं में पहुंचकर दागियों की फौज जनतंत्र को मुंह चिढ़ाती. हाल ही में एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) द्वारा अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि 151 मौजूदा सांसदों और विधायकों ने अपने चुनावी हलफनामों में महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित मामलों की जानकारी दी है. इनमें 16 मौजूदा सांसद और 135 विधायक ऐसे हैं, जिन्होंने भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत बलात्कार से संबंधित मामलों की जानकारी दी है. ऐसे मामलों में दस साल की सजा का प्रावधान है और इसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है. इन माननीयों में भाजपा के 54, कांग्रेस के 23, तेलुगु देशम के 17 सांसद-विधायकों के अलावा कई अन्य दलों के भी माननीयगण शामिल हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक 25 सांसदों और विधायकों के साथ पश्चिम बंगाल शीर्ष पर है. अर्थात राज्य के तौर पर सर्वाधिक दागी इसी राज्य से हैं. उल्लेखनीय है कि चुनाव सुधार के लिए काम करने वाली संस्था एडीआर ने 2019 और 2024 के बीच चुनावों के दौरान निर्वाचन आयोग को सौपें गए मौजूदा सांसदों और विधायकों के 4809 हलफनामों में से 4693 की जांच की, जिसमें यह तथ्य सामने आया है. यह बिडंबना देखिए कि दागी जनप्रतिनिधियों को लेकर सर्वोच्च अदालत लगातार चेतावनी दे रहा है इसके बावजूद संसद और विधानसभाओं में पहुंचने वाले दागी जनप्रतिनिधियों की संख्या में कमी नहीं आ रही. मतलब साफ है कि राजनीतिक दलों का ऐसे लोगों से परहेज नहीं है और न ही निर्वाचित करते समय जनता इसे तवज्जो दे रही है. यह स्थिति किसी भी संसदीय लोकतंत्र की जीवंतता के लिए भयावह और खतरनाक है. याद होगा गत वर्ष पहले सर्वोच्च अदालत ने पूर्व और मौजूदा सांसदों और विधायकों के खिलाफ उन लंबित आपराधिक मामलों का निपटारा दो महीने के दरम्यान करने को कहा था, जिनके ट्रायल पर रोक लगी हुई थी. तब जस्टिस एनवी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने दो टूक कहा था कि इस मामले में सुनवाई रोजाना हो और इसे बेवजह न टाला जाए.
पीठ ने सभी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों को भी ताकीद किया था कि इन निर्देशों के पालन में किसी तरह की बाधा नहीं होनी चाहिए. वे इसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए भी निपटाएं. सर्वोच्च अदालत ने यह भी निर्देश दिया था कि अगर किसी मुकदमे में उच्च न्यायालय ने रोक लगा रखी हो तो उसे जल्द से जल्द हटाया जाए. अच्छी बात है कि देश की सभी अदालतें ऐसे मामलों में तेजी से सुनवाई करते हुए निर्णय सुना रही हैं. देखा भी जा रहा है कि तमाम माननीयों को संसद और विधानसभाओं की सदस्यता से हाथ धोना पड़ रहा है. सदन की शोभा बढ़ाने वाले जेल की सलाखों के भीतर जा रहे हैं. दागियों को लेकर सर्वोच्च अदालत कितना गंभीर है वह इसी से समझा जा सकता है कि वह प्रधानमंत्री एवं राज्य के मुख्यमंत्रियों को भी ताकीद किया कर चुका है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दागी लोगों को मंत्री पद न दिया जाए. क्योंकि इससे लोकतंत्र को क्षति पहुंचती है. सर्वोच्च अदालत यह भी कह चुका है कि भ्रष्टाचार देश का दुश्मन है और संविधान की संरक्षक की हैसियत से प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों से अपेक्षा की जाती है कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को मंत्री नहीं चुनेंगे. लेकिन विडंबना है कि अदालत के इस नसीहत का सियासी दलों पर कोई खास असर पड़ता नहीं दिख रहा.
इसका प्रमुख कारण है कि सर्वोच्च अदालत ने दागी सांसदों और विधायकों को मंत्री पद के अयोग्य मानने में सीधे हस्तक्षेप के बजाए इसकी नैतिक जिम्मेदारी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के विवेक पर छोड़ दिया है. उसने व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा. यहां ध्यान देना होगा कि दागी माननीयों को लेकर सर्वोच्च अदालत एक-दो बार नहीं, बल्कि अनगिनत बार सख्त टिप्पणी कर चुका है. लेकिन हर बार देखा जाता है कि राजनीतिक दल अपने दागी जनप्रतिनिधियों को बचाने और उन्हें टिकट देने के लिए कुतर्क गढ़ते नजर आते हैं. याद होगा गत वर्ष पहले जब सर्वोच्च अदालत ने जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के जरिए दोषी सांसदों व विधायकों की सदस्यता समाप्त करने और जेल से चुनाव लड़ने पर रोक लगायी तो राजनीतिक दलों ने किस तरह बखेडा खड़ा किया. अकसर राजनीतिक दलों द्वारा सार्वजनिक मंचों से मुनादी पीटा जाता है कि राजनीति का अपराधीकरण लोकतंत्र के लिए घातक है. वे इसके खिलाफ कड़ा कानून बनाने और चुनाव में दागियों को टिकट न देने की हामी भरते हैं.
लेकिन जब उम्मीदवार घोषित करने का मौका आता है तो दागी ही उनकी पहली पसंद बनते हैं. दरअसल राजनीतिक दलों को विश्वास हो चुका है कि जो जितना बड़ा दागी है उसके चुनाव जीतने की उतनी ही बड़ी गारंटी है. देश की जनता को समझना होगा कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में नेताओं के आचरण का बदलते रहना स्वाभावगत प्रक्रिया है. लेकिन उन पर निगरानी रखना और यह देखना कि बदलाव के दौरान नेतृत्व के आवश्यक और स्वाभाविक गुणों की क्षति न होने पाए यह जनता की जिम्मेदारी है. देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तरक्की के लिए जितनी सत्यनिष्ठा व समर्पण राजनेताओं की होनी चाहिए उतना ही जनता की भी. लोकतंत्र में जनता ही संप्रभु होती है. समझना होगा कि दागियों को राजनीति से बाहर खदेड़ने की सिर्फ जिम्मेदारी राजनीतिक दलों के कंधे पर डालकर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता. जनता की भी जिम्मेदारी है कि वह दागियों को चुनने के बजाए साफ-सुथरे लोगों को चुनें.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.
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