BY- सुदन मुंडा (ग्राम प्रधान किन्दुआसेकड़ा, जितेंद्र मुंडा (ग्राम प्रधान हाबुइडीह),गोगा मुंडा, भैयाराम मुंडा)
हाइबुडीह गांव एक परिचय
जिला खूंटी
पंचायत डाड़ीगुटु
घरों की संख्या 60
किलि – नाग किलि
हाबुईडीह गांव एक खूंटकट्टी गांव है. यह झारखंड राज्य के खूंटी जिले में पड़ता है. यह गांव खूंटी प्रखंड के डाड़ीगुटू पंचायत में है. यह गांव खूंटी से 22 किमी और मारंगहादा से 07 किमी की दूरी पर खूंटी की पूरब दिशा में स्थित है.
सीमान – हाबुईडीह गांव के पूरब में बचंगामद गांव, पश्चिम में किन्दुवासच्कड़ा, उतर में हाकाडुवा, दक्षिण में कुरकुटा गांव है. इस गांव के पूरब में पचगच बुरू (पहाड़), जंगल, जिलु जयर, देशाउली, इकिर तथा दिबि गुडि़ स्थित है. उत्तर दिशा में जयर, मांड़ाबुरू, ससन (हाड़सारी) स्थित है. इस गांव में नाग किलि के मुंडा रहते हैं.
गांव का नामकरण
इस गांव का नाम आबुडीह उच्चारण में परिवर्तन होते-होते हाबुईडीह हो गया. इस गांव के पूर्वज पहले दुलमी गांव में रहते थे. वहां से सर्वप्रथम टिंडि़यां मुंडा इस गांव में आये. वे रिची पक्षी (बाज) पाला करते थे. उन्होंने एक दिन सुकनबुरू से उस बाज को उड़ा दिया. गच्ंड़ टांड़ पर एक बरगद का पेड़ था, उसी पेड़ पर बाज जाकर बैठ गया. उस जगह पर हाकाडुवा गांव था. गांव की एक युवती ने बाज को टोकरी से ढंक दिया. उस लड़की का नाम लुड़गी था. लुड़गी से ही बाद में टिंडि़यां मुंडा की शादी हुई. शादी के बाद इसी सीमान में दोनों रहने लगे. दुलमी से जब लोग यहां आते थे तब पूछने पर वे बताते थे-”अञ आबुडीह तेंञ सेन तन” (मैं आबुडीह जा रहा हूं), इसी कारण से गांव का नाम हाबुईडीह पड़ा.
हातु बोंगा का इतिहास
पेंगच बुरूः हाबुईडीह के पूरब दिशा में पेंगच बुरू स्थित है. इस गांव के लिए यह स्थल काफी महत्वपूर्ण है. हाबुईडीह के लोग इसे बुरू बोंगा के रूप में महत्व देते हैं. इस स्थल पर मुंडा समुदाय के लोग प्रतिवर्ष बरसात का मौसम आने से पहले लाल बकरा और लाल मुर्गे की बलि देते हैं और पेगे बुरू से अच्छी वर्षा तथा अच्छी फसल की कामना करते हैं.
जयरः सरहुल के अवसर पर जयर में सुकड़ा मुर्गा (हल्का लाल और मलि-अनेक मिश्रित रंगों का मुर्गा), लाल मुर्गा, काला मुर्गा, सफेद मुर्गा सिंङबोंगा के नाम से बलि चढ़ायी जाती है. पूरे गांव से पांच रंग के मुर्गे लाये जाते हैं. पाहन इनकी पूजा करता है. पहले दिन शाम के जयार स्थान के गोबर से लीपा जाता है. सरना में दो नये घड़े में पानी लाया जाता है और सखुआ की लकड़ी या दतवन से पानी के नाप लिया जाता है. दूसरे दिन पानी को देखने के बाद अनुमान लगाते हैं. अगर पानी घट गया तो इस वर्ष बरसात कम होगी और पानी नहीं घटा तो बरसात अच्छी होगी. इस जयर में मंड़ाबुरू, देशाउली, जिलु जयर, इकिर, सपरा इकिर बोंगाओं को स्मरण किया जाता है एवं उन्हें मनाया जाता है. यह जयर गांव का मुख्य जयर है. जो उत्तर दिशा में स्थित है.
इकिरः वर्ष में एक बार जून में काले मुर्गा या काले बकरे की बलि देकर पूजा की जाती है. इसके पीछे लोगों का मानना है कि उस साल आच्छी बारिश होगी. जहां पूजा करते हैं, वहीं पर खिचड़ी बनती है. पूरे गांव को पुरुष उस प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं.
दिबि गुडि़छः हाबुईडीह गांव के पूरब में दिबि गुडि़ स्थित है. यहां प्रतिवर्ष लाल तथा सफेद मुर्गे की बलि देवताओं को दी जाती है. दिबि के नाम से काला बकरा या बकरा नहीं मिलने पर जोड़ा कबूतर तथा सीमान रक्षा के लिए एक बतख की बलि देकर उन्हें मनाया जाता है. बोंगा के नाम पर सफेद मुर्गे की बलि दी जाती है.
इस गांव को लोगों में अपने बोंगा के प्रति जितनी आस्था है उतनी ही आस्था अपने कामों के प्रति है. रोपाई, निकाई, जोताई, पत्थल ढोना, आड़ बांधना,जंगल से लकड़ी लाना, घर बनाने जैसे कामों को वे खुद करते हैं. इसके लिए लोगों के द्वारा श्रम दान दिया जाता है. श्रमदान का काम सुबह में एक बेला तक किया जाता है. जितना बड़ा काम होता है उस हिसाब से गांव के लोगो को ‘मदइत’ के लिए बुलाते हैं. मदइत से ज्यादा काम रहने पर गांव में मजदूरी दर तय की गई है, जो कि 80 रुपया है. पिछले वर्ष तक यह 60 रुपया निर्धारित थी. रोपाई, कटाई, एवं खाद्यान्न ढोने में दिन का काम होता है. इसलिए लोगों को मजदूरी दी जाती है.
घर का स्वरूपः हाबुईडीह गांव में अधिकांश घर मिट्टी के हैं. जिसे खपड़ा से छारा गया है. इनके घर की रूपरेखा पारंपरिक है. इनके घरों में रसोई घर, एक लंबा सा ढाबा (बंद बरामदा) और ढाबा के बीच में एक कमरा होता है. घर के बाहर एक खाली स्थान होता है. उस खाली स्थान के चारों तरफ किसी-किसी घर में छोटी-छोटी चाहरदीवारी देखने को मिलती है. इस प्रकार की चाहरदीवारी सभी घरों में नहीं होती. हाबुईडीह में स्थित घरों का यह स्वरूप पारंपरिक है. इन पारंपरिक घरों के बीच इंदिरा आवास योजना के तहत बने पक्का का एक-दो मकान भी देखने को मिलता है.
पारंपरिक घरों के निर्माण में गांव के लोग मिट्टी, खपड़ा, बांस तथा कांड़ (सखुआ की लकड़ी) का उपयोग करते हैं. अपने घर के निर्माण में लोग डेढ़ हाथ (दो फीट) चौड़ा तथा दो-ढाई फीट गहरी नींव खोदते हैं. इसके बाद मिट्टी के सानकर पत्थर के साथ जोड़ाई की जाती है. दीवार तैयार कर लेने के बाद कांड़ के लिए जंगल से लकड़ी लायी जाती है. बांस अगर अपना है, तो घर का ही अन्यथा खरीद कर बता के रूप में लगाते हैं. बांस के ऊपर खपड़ा छारते हैं. खपड़ा भी खुद ही बना लिया जाता है.
खपड़ा अगर कुम्हार से बनवाया जाये तो बदले में पैसा तथा चावल देते हैं. खुद से बनाया गया खपड़ा कुम्हार के द्वारा बनाये गये खपड़े से थोड़ा कम टिकाऊ होता है. खुद से खपड़ा बनाने के लिए पहले पटरा में मिट्टी का गोंद (मिट्टी को सानकर-पीसकर छोटा-छोटा गोला बनाते हैं) रखते हैं. उसे पटरा में पीटकर रोटी जैसा बेल लेते हैं. पीटने के बाद लकड़ी से बने हुए सांचे में मिट्टी को डाल कर सांचा को बराबर चाकू से मिट्टी को काट दिया जाता है. फिर धूप में सूखाया जाता है. उसके बाद लकड़ी काट्ठा लगाकर आग में पका दिया जाता है. खुद से बनाया हुआ खपड़ा कुम्हार की अपेक्षा आकार में थोड़ा बड़ा होता है.
गांव की बनावटः हाबुईडीह गांव आकार में लगग आयाताकार है. उतर-दक्षिण की लंबाई ज्यादा है और गांव की पूरब-पश्चिम की लंबाई थोड़ी कम है. यानी यह गांव उत्तर से दक्षिण की ओर फैला हुआ है. इस गांव के बीच में अखड़ा स्थित है. जहां गांव के लोग किसी भी कार्यक्रम तथा पर्व-त्योहारों में उत्सव मनाते हैं. हाबुईडीह गांव में एक विशेष चट्टान है. जिसे हिंद सेरेंग (चट्टान) के नाम से जाना जाता है. यह इस गांव का सांस़्कृतिक केंद्र है. इस स्थान पर पारंपरिक तौर से सप्ताहिक बैठक होती आ रही है. बैठक सप्ताह के हर गुरूवार को होती है. इस जगह पर एक चबूतरा बना दिया गया है. अब साप्ताहिक बैठक उसी चबूतरे पर होती हैं. इस चबूतरे के बगल में देवी मंडप बनाया गया है. उस स्थान को सपरा बुरू के नाम से जाना जाता है.
गांव के अखड़ा में पर्व-त्योहार तथा समय-समय पर नाच-गान होता रहता है. गांव की सांस्कृतिक परंपरा के अनुसार अखड़ा में सप्ताह में एक बार सामूहिक नाच-गान आयोजित करने का रिवाज था. परंतु अब सप्ताहिक नाच-गान का रिवाज खत्म होता जा रहा है. सिर्फ पर्व त्योहार अथवा किसी विशेष कार्यक्रम के अवसर पर अखड़ा में ही नाच-गान का आयोजन किया जाता है.
हाबुईडीह में स्थित सांस्कृतिक केंद्र जयर का अपना महत्व है. इस स्थल पर गांव के लोग जमा होते हैं और कृषि के लिए अच्छी बारिश की कामना करते हुए लाल मुर्गा और लाल बकरे की बलि दी जाती है. इस दौरान पेगे बुरू,माड़ा बुरू, देशाउलि, जिलु जयर, इकिर, सपरा इकिर से भी बोंगाओं को याद करते अच्छी खेती, गांव की सुरक्षा एवं सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थना की जाती है. सरहुल के पहले दिन बा पूजा के समय लोग जयर में जमा होते है और पूजा-अर्चना करते है. फिर वहीं से जापि नाचते हुए पहान के आंगन तक आते हैं. सरना या जयर से आने के बाद पहान के घर में घर की औरतें धान कूटने के सेल (धान कूटने का सांचा) में पहान का पैर धोती हैं. उसके साथ ही ग्राम प्रधान और अन्य लोगों के भी पैर धोये जाने की परंपरा है. उस दिन पहान के आंगन में कुछ देर तक नाचने के बाद अखड़ा में रात भर नाच-गान होता है.
इस गांव के सभी सांस्कृतिक केंद्र गांव के बच्चों तथा युवाओं को सांस्कृतिक चेतना से लैस करने का काम करते हैं. साथ ही एक-दूसरे के बीच रिश्ते को विकसित करने तथा रीति-रिवाजों से परिचित कराने में अहम भूमिका निभाते हैं.
उपचार के तरीकेः गांव लोग जब बीमार होते है तो उनका इलाज पारंपरिक तरीके से किया जाता है. उनके इलाज का यह पारंपरिक तरीका प्राचीन काल से चला आ रहा है. इस गांव में पारंपरिक तरीके से इलाज करने वाले कई वैद्य हैं. वे जंगली जड़ी-बूटियों से इलाज करते हैं. ये वैद्य बीमारियों की परख पेशाब देखकर भी करते हैं. इलाज के लिए जड़ी-बूटि हाबुईडीह के जंगल से लाते हैं. पारंपरिक इलाज के लिए यदि किसी विशेष बीमारी प्रकार की जड़ी-बूटियां जंगल में नहीं मिल पाती हैं तो मारंगहादा बाजार से उन जड़ी-बूटियों को खरीदते हैं. इन वैद्य के अलावे रोग बीमारी के इलाज गांव का भगत के द्वारा भी कराया जाता है. भगत इलाज के लिए डालिया लगाता है. डालिया लगाने के बाद रोगी द्वारा लाये गये चावल को देखकर झाड़फूंक करता है और रोग को दूर करने के लिए जड़ी-बूटी भी देता है.
पारंपरिक उपचार की पद्धतियों से सांप, बिच्छू, कुत्ता तथा बिल्ली के काटने पर इलाज किया जाता है. इनका इलाज झाड़-फूंक तथा जड़ी-बूटियों के द्वारा किया जाता है. पैर में मोच तथा हड्डियों की टूट-फूट का इलाज जड़ी-बूटियों से किया जाता है. साधारण मोच होने पर गांव में सिर रचा: (सोंटाई) करने वाले लोग भी हैं. वे मोच आने पर सोंटाई करके मोच ठीक करते है. यहां तक कि महिलाओं के प्रसव में भी पारंपरिक तरीके का इस्तेमाल किया जाता है. प्रसव कराने के लिए गांव की महिला को ही बुलाया जाता है. उस महिला को दाई कहा जाता है.
आज कल झाड़-फूंक तथा जड़ी-बूटियों से ठीक नहीं होने पर गांव के लोगों को इलाज के लिए मारंगहादा, खूंटी अथवा रांची आना पड़ता है.
हाबुईडीह के बारे में कुछ विशेषः गांव के लोग एक-दूसरे से काफी जुड़े हुए हैं. गांव की सामूहिकता आज भी लोगों में बरकरार है. एक-दूसरे के बीच सहयोग की भावना तथा समानता एवं समूहिकता यहां की प्रमुख विशेषता है.
इस गांव की आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति हाबुईडीह में स्थित जंगल करता है. गांव के लोगों के घर बनाने के लिए लकड़ी या बांस की आवश्यकता हो या फिर जलावन के लिए, वे गांव से ही प्राप्त करते हैं. दतवन, पत्ता जो पत्तल और दोना में उपयोग होता है . वर्षा के पानी तथा धूप से बचने के लिए गांव के लोग गुंगू बनाते हैं. गुंगू बनाने के लिए जिन पत्तों का इस्तेमाल किया जाता है, वह भी गांव के जंगल से ही मिलता है. जीवन की जरूरतें गांव के संसाधनों से ही पूरी हो जाती हैं. इस गांव का विकास एवं समृद्धि जंगल की सघनता पर आधारित थी. परंतु आजकल जंगल की सघनता में कमी आयी है. इस कमी के बावजूद भी पूजा-पाठ, शादी विवाह तथा जन्म-मरण के मौकों पर उपयोग में आने वाली बहुत सारी आवश्यक चीजों की पूर्ति गांव का जंगल करता है. हाबुईडीह गांव का विकास एवं समृद्धि जंगल की देन है.
आज जंगल की सघनता में कमी आयी है. जिसका प्रभाव भी गाँव में देखने को मिलता है. गुंगू बनाने के लिए पहले पत्तो का उपयोग किया जाता था परन्तु आज कल लोग प्लास्टिक का उपयोग करते है. प्लास्टिक इन्हें बाजार से खरीदना पड़ता है. इसी प्रकार हाबुईडीह के जंगल से जो जड़ी-बूटियां मिल जाती थीं इनमें से कुछ चीजें आज नहीं मिल पा रही हैं. इन्हें मारंगहादा बाजार से खरीदना पड़ता है.
गांव के लोगों के पास करीब 500 सालों से अधिक समय से अपने पूर्वजों का लेखा-जोखा है. इसमें गांव बसानेवाले से लेकर वर्तमान समय तक की जानकारी है.