Satyendra Ranjan
यह घटनाक्रम विचित्र है. जबसे अमेरिका में 2024 का चुनाव-चक्र शुरू हुआ, जनमत सर्वेक्षणों में डोनाल्ड ट्रंप की बड़ी बढ़त बनी हुई थी. सीएनएन टीवी चैनल पर राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ उनकी बहस के बाद तो यह अंतर इतना बढ़ गया कि डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए उसे पाट पाना लगभग नामुमिकन दिखने लगा. इसे देखते हुए डेमोक्रेटिक पार्टी बीच राह में उम्मीदवार बदलने को मजबूर हुई. पार्टी ऐस्टैबलिशमेंट ने बाइडेन को मैदान से हटने के लिए विवश किया और उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस को उम्मीदवार बनाया. उसके बाद जनमत सर्वेक्षणों और मीडिया कवरेज में चमत्कारिक बदलाव आया. अब चुनाव पूर्व अधिकांश सर्वेक्षणों में न सिर्फ हैरिस की बढ़त बनी हुई है, बल्कि यह बढ़ती ही जा रही है. सवाल वही चुनाव-पूर्व जनमत सर्वेक्षणों के सटीक होने का है. वैसे तो ऐसे सर्वेक्षणों के अनुमान पहले भी कभी-कभार गलत साबित हो जाते थे, लेकिन पिछले लगभग डेढ़ दशक में ऐसा होने के मामले तेजी से बढ़ते चले गए हैं. और यह सिर्फ अमेरिका की बात नहीं है. अभी तीन महीने पहले हमने अपने देश में इन सर्वेक्षणों की धज्जियां उड़ते देखीं. ऐसा क्यों हो रहा है, इस बारे में सर्वे के कारोबार से जुड़े लोगों ने कोई ठोस स्पष्टीकरण नहीं दिया है.
फिर भी हम कुछ अनुमान लगा सकते हैं. 1990 के दशक में अपनाई गई आर्थिक नीतियों को सार्वजनिक बहस से दूर रखने के मकसद से विभिन्न देशों में सामाजिक- सांस्कृतिक मुद्दों पर ध्रुवीकरण को सुविचारित रूप से बढ़ावा दिया गया. विकसित देशों में 2007-08 की मंदी के बाद ऐसे ध्रुवीकरण के लिए वस्तुगत परिस्थितियां गहरी होती चली गईं. ऐसे में किसी भी चुनावी लोकतंत्र वाले देश में सियासी समीकरण पहले जैसे (20वीं सदी के उत्तरार्द्ध की तरह) नहीं रह गए हैं. संभवतः सर्वे एजेंसियां अभी तक नए समीकरणों और मतदाताओं के नए मूड को भांपने के तरीके नहीं ढूंढ पाई हैं. अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप की परिघटना ऐसे ही ध्रुवीकरण का परिणाम है. ट्रंप ने नव-उदारवादी नीतियों के कारण अवसर गंवाने वाले समूहों तथा धार्मिक मान्यताओं एवं कंजरवेटिव उसूलों से प्रेरित जन समुदायों की व्यापक गोलबंदी करके अस्मिता की जवाबी राजनीति) खड़ी की है. समाज में मौजूद आक्रोश और असंतोष को अपने पक्ष में संगठित करने में वे सफल रहे हैं.
इस रूप में वे समाज में पारपंरिक राजनीति के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरे हैं. उनके समर्थकों में अक्सर एक तरह का जुनून देखा जाता है. इस जुनून की व्यापकता में कितने लोग समाहित हो चुके हैं, इसका अनुमान लगाना पारंपरिक कौशल के बाहर की चीज हो गई है. इसी तरह उनके विरोधी मतदाताओं में ध्रुवीकरण का स्तर किस रूप में और किस रफ्तार से बढ़ा है, इसका अंदाजा लगाना भी आसान नहीं है. ऐसे ध्रुवीकरण का परिणाम 2022 के संसदीय और राज्य स्तरीय चुनावों में देखने को मिला था, जब डेमोक्रेटिक पार्टी को अनुमान से अधिक कामयाबी मिली. इसीलिए अभी जबकि मतदान में लगभग दो महीने बाकी हैं, ओपिनियन पोल्स के आधार पर चुनाव के बारे में लगाए जा रहे अनुमानों का आधार बहुत मजबूत नहीं है. खासकर यह देखते हुए कि 2022 के बाद डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थकों के बीच एक बड़ी फूट पड़ी है. फिलस्तीन के ग़जा में इजराइल के नरसंहार को बाइडेन-हैरिस प्रशासन ने अंध समर्थन दिया है. इससे नाराज लोग जो बाइडेन को आज जिनोसाइड बाइडन कह कर पुकारना ज्यादा पसंद करते हैं.
युवा, अल्पसंख्यक, ब्लैक समुदाय आदि के लोगों में बाइडेन-हैरिस प्रशासन की नरसंहार समर्थक नीतियों से फैले आक्रोश का नज़ारा सड़कों पर, विश्वविद्यालय परिसरों आदि में खूब देखने को मिला है. पांच नवंबर को आने वाला चुनाव परिणाम काफी कुछ इससे तय होगा कि ये समूह अपनी वर्तमान भावना से प्रेरित बने रहते हैं या फिर ट्रंप को बड़ा खतरा मान कर अनिच्छा से डेमोक्रेटिक पार्टी को वोट डालने की विवशता दिखाते हैं. हैरिस के लिए एक अन्य चिंताजनक पहलू महंगाई और बढ़ी ब्याज दरों से पिछले तीन साल में लोगों की बढ़ी आर्थिक मुसीबतें हैं. ये सारा विमर्श अमेरिका के लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण है. यह अमेरिकी खेमे में शामिल देशों के लोगों के लिए भी अहम है. मुमकिन है कि ग्लोबल साउथ के शासकवर्गीय लिबरल और कंजरवेटिव समूहों को भी यह अहम मालूम पड़े. इसलिए कि पश्चिमी प्रचार तंत्र के प्रभाव में जीने वाले उनमें से बहुत से लोग- जो चुनावी लोकतंत्र को आदर्श मानते हैं- उन्हें हैरिस लिबरल-प्रोग्रेसिव और ट्रंप कंजरवेटिव-प्रतिक्रियावादी नजर आते हो सकते हैं.
लेकिन हकीकत यह है कि अमेरिका के सत्ता तंत्र में ऐसा जो भी बंटवारा नज़र आता है, सुविचारित ढंग से तैयार किया गया एक भ्रमजाल है. कम-से-कम आज के दौर में तो यह बात सोलह आने सच है. इसलिए वैसे तो रह जगह कर, लेकिन कम-से-कम ग्लोबल साउथ के मेहनतकश तबकों और आम लोगों को अमेरिकी चुनाव को देखने के लिए अलग पैमाना अपनाने का जरूरत है. किसी खेल की तरह चुनावों में भी एक तरह का रोमांच मौजूद रहता है. चुनावी गणनाओं में अक्सर आम इनसान की दिलचस्पी बन जाती है. इस रूप में अमेरिकी चुनाव में भी दिलचस्पी स्वाभाविक है. लेकिन जहां तक महत्त्व की बात है, तो बाकी दुनिया के आम जन के लिए यह सवाल ज्यादा अहम है कि क्या ट्रंप या हैरिस से किसी के जीतने या हारने से उनके हितों को कोई फर्क पड़ेगा?जैसे-जैसे दुनिया पर अमेरिकी वर्चस्व घटा है, दोनों पार्टियों की नीतियां अधिक आक्रामक हो गई हैं. इसलिए वैश्विक मेहनतकश आवाम के लिए हैरिस या ट्रंप की बहस में पड़ना निरर्थक है. लिबरल और कंजरवेटिव की बहस या इनके बीच दिखने वाला विभाजन दरअसल, सत्ता हासिल करने की रणनीतियां भर हैं. सत्ता में आने के बाद दोनों दलों का मकसद समान रहता है. तो भला हम हैरिस बनाम ट्रंप की बहस में क्यों पड़ें?
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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