Lagatar Desk : देश के पूर्वी और पूर्वोत्तर के 8 राज्य जलवायु परिवर्तन से होनेवाले संभावित खतरे के दायरे में हैं. इनमें झारखंड पहले नंबर पर है. ऐसा विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की विशेष आकलन रिपोर्ट में कहा गया है. रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के लिए सर्वाधिक संवेदनशील इन राज्यों की सूची में झारखंड का नाम सबसे ऊपर है. इसका कारण झारखंड में मच्छर-जनित रोगों का ऊंचा स्तर, खाद्यान्न उपज की परिवर्तनशीलता और सड़क और रेल संपर्क की कमी है.
बिहार के साथ पूर्वी और पूर्वोत्तर के राज्य सर्वाधिक असुरक्षित
रिपोर्ट के अनुसार झारखंड के साथ बिहार, छत्तीसगढ़, ओडिशा और पश्चिम बंगाल सरीखे पूर्वी राज्यों के अलावा असम, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश जैसे पूर्वोत्तर राज्य भी जलवायु परिवर्तन से होनेवाले संभावित खतरों को झेलेंगे. ये सभी इलाके अतिसंवेदनशील और असुरक्षित पाये गये हैं. झारखंड, बिहार और असम के 60 प्रतिशत जिले इस श्रेणी में आते हैं.
झारखंड का साहिबगंज जिला है सबसे संवेदनशील
असम के करीमगंज जिले को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान को लेकर सबसे ज्यादा असुरक्षित पाया गया है. झारखंड का साहिबगंज जिला देश के सबसे अधिक असुरक्षित 51 जिलों में से एक है. बिहार के कटिहार और किशनगंज, ओडिशा का नौपदा, पश्चिम बंगाल का पुरुलिया और कूच बिहार तथा जम्मू कश्मीर का रामबन जिला भी इसी श्रेणी में रखे गये हैं. महाराष्ट्र पर जलवायु परिवर्तन का सबसे कम खतरा है. विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के इस प्रोजेक्ट में आईआईटी मंडी और आईआईटी गुवाहाटी के शोधकर्ताओं ने भाग लिया. इसके अलावा बंगलुरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान, आईआईएस भी इसमें शामिल था.
क्लाइमेट चेंज का वल्नरेबिलिटी इंडेक्स बनाकर हुआ अध्ययन
यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है. इसमें राज्यवार और जिलावार क्लाइमेट चेंज का वल्नरेबिलिटी इंडेक्स (वीआई) बनाया गया है. इसी इंडेक्स के आधार पर राज्यों और जिलों को रैकिंग दी गयी है. 0.674 की उच्चतम वीआई के साथ झारखंड इस सूची में पहले नंबर पर हैं. यानी यहां जलवायु परिवर्तन का खतरा सबसे ज्यादा है. झारखंड के कुछ कारक दूसरे नंबर पर आनेवाले मिजोरम के समान पाये गये. लेकिन इस पूर्वोत्तर राज्य में प्रति एक हजार लोगों पर स्वास्थ्य कर्मियों का घनत्व सबसे अधिक था. हालांकि इनमें डॉक्टरों की संख्या 8 प्रतिशत से कम थी.
अध्ययन में इन कारकों को किया गया शामिल
अध्ययन में कहा गया है कि राज्यवार और जिलावार खतरे के आकलन से राज्यों को भविष्य में आपदाओं के असर को कम करने के कदम उठाने अथवा उससे संबधित नीति बनाने में सहायता मिलेगी. डीएसटी के अनुसार सभी राज्यों के अध्ययन में विभिन्न कारकों, कारणों और उत्प्रेरकों को शामिल किया गया. ये कसौटियां आबादी, लोगों की आय के स्रोत, स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति और परिवहन नेटवर्क जैसे बिंदुओं पर आधारित थीं.
उच्च, औसत और निम्न वीआई में बांटा गया राज्यों को
इन राज्यों को उच्च, औसत और निम्न के वल्नरेबिलिटी इंडेक्स की तीन श्रेणियों में बांटा गया था. अध्ययन में गरीबी रेखा से नीचे बसर करने वाली आबादी के प्रतिशत, संक्रमित पानी से होनेवाले रोग, डेंगू और मलेरिया जैसी बीमारियां, वर्षा-पोषित खेती, कम घनत्व वाला परिवहन नेटवर्क, छोटे और मंझोले भू स्वामी और आय के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता को आधार बनाया गया. निम्न वल्नरेबिलिटी इंडेक्स में महाराष्ट्र के अलावा गोवा, नगालैंड, केरल, तमिलनाडु, हरियाणा, उत्तराखंड, पंजाब, सिक्किम, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश को रखा गया था.
आबादी, आय, कृषि और बीमारियों जैसे कारकों को बनाया गया आधार
रिपोर्ट के अनुसार निम्न वल्नरेबिलिटी इंडेक्स में आनेवाले राज्य प्राकृतिक संसाधनों पर बहुत ज्यादा निर्भर नहीं हैं. वहां बीपीएल आबादी अपेक्षाकृत कम है और सड़क और रेल संपर्क बेहतर है. उच्च वल्नरेबलिटी वाले राज्यों के बारे में शोधकर्ताओं का कहना था कि वहां प्रति व्यक्ति आय कम है और मानव विकास सूचकांक में उनका स्थान नीचे है. उन राज्यों में बीमारियां अधिक हैं. स्वास्थ्य सेवाएं स्तरीय नहीं है और बीपीएल आबादी की संख्या अधिक है. इन राज्यों में अत्यधिक खेती की जाती है. उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा, गुजरात, मेघालय, जम्मू और कश्मीर, राजस्थान, मध्य प्रदेश, मणिपुर, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक को औसत या मॉडरेट वीआई कैटगरी में रखा गया है.
जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील देशों में है भारत
भारत का नाम दुनिया में जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हालात वाले देशों की सूची में आता है. 2019 में जारी एक वैश्विक जोखिम सूचकांक में 191 देशों में भारत की रैंकिंग 29वीं थी. देश के विभिन्न भागों में हर साल बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि, भूस्खलन, भूकंप और चक्रवात जैसी मौसमी आपदाओं की मार पड़ती है. इनमें से कई मानव निर्मित मानी जाती हैं. बेतहाशा निर्माण, जंगल क्षेत्र में चलनेवाली परियोजनाएं, पेड़ों की कटाई और पानी की अत्यधिक खपत वाली खेती ने हालात को और गंभीर बना दिया है.