Shyam Kishore Choubey
2019 के विधानसभा चुनाव की परिस्थितियां याद करते हुए अचानक कुरुक्षेत्र याद आ गया. जैसे द्वापर युग में पांडवों और कौरवों की सेनाओं से कुरूक्षेत्र का मैदान सजाया गया था, कुछ उसी किस्म की रणनीतिक चालें 2019 के विधानसभा चुनाव में चली जा रही थीं. यह अलग बात है कि झारखंड के इस मैदान में कौरव कोई नहीं था, सभी पांडव ही पांडव थे. चूंकि सभी दल और सभी प्रत्याशी झारखंड के विकास और इसकी तरक्की की ही बातें कर रहे थे, इसलिए सबका मान बराबर माना जाना चाहिए. अंदर की बातें थोड़ी देर के लिए भूल जायें तो चाहे राजनीतिक मंच हो या विधानसभा या कोई छोटा-मोटा भी जनसमूह, ऐसी हर जगह पर हमारे प्यारे-राजदुलारे राजनेता त्याग, कठिन परिश्रम, विजन, विकास जैसे भारी-भरकम और आकर्षक शब्दों से अलग कुछ भी नहीं उवाचते. खासकर चुनावी मैदान में तो कतई नहीं. उनका स्वार्थ पद पर आसीन होने के बाद पता चलता है. इसलिए चुनावी मैदान की समीक्षा के दौरान सबको बराबर मानते हुए उनकी मार्किंग की जवाबदेही वोटरों पर ही छोड़ देना उचित रहेगा.
इस चुनाव के पूर्व जिस प्रकार “यह घर छोड़ो, उस घर को पकड़ो, बात न बनी तो
तीसरा घर भी देख लो”, का समां बना था, चुनाव अभियान भी कुछ वैसा ही गुजरा. राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के लिए रहस्य, रोमांच और बहस से सराबोर. केंद्रीय भाजपा नेताओं ने तो महासंग्राम का सीन क्रियेट करते हुए पूरे झारखंड को मथ डाला. दो-दो, तीन-तीन राजनेता यहां-वहां रैली, भाषण करते नजर आते थे. इधर से झामुमो के हेमंत सोरेन जवाब दे रहे थे. राहुल आदि ने भी दौड़धूप की लेकिन भाजपा नेताओं का कोई जवाब न था. 30-40 दिनों तक खूब सरगर्मी रही. इस चुनाव अभियान की चर्चा के पूर्व परिणाम जान लेना बेहतर रहेगा, तब दिलचस्पी अधिक जगेगी. एक बार फिर याद कर लें, झारखंड में केवल 81 ही विधानसभा सीटें हैं. इनमें बहुत शोरगुल के बावजूद भाजपा ने 79 ही प्रत्याशी दिये. महागठबंधन में सीट शेयरिंग इस प्रकार हुई, झामुमो 43, कांग्रेस 31, राजद 7. एनसीपी ने सात सीटों पर उम्मीदवार उतारा.
सीपीआई-एमएल, जिसे माले के नाम से भी जाना जाता है, ने 14 सीटों पर प्रत्याशी दिये. भाजपा की डाल से टूटी आजसू ने अपना पूरा इतिहास पीछे छोड़ते हुए ताबड़तोड़ 53 सीटों पर प्रत्याशी देकर सबको चौंकाया, जबकि यूपीए से ताजा-ताजा विलग हुए अकेले जेवीएम ने सभी 81 सीटों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर हैरानी में डाल दिया. जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, भाजपा, झामुमो, कांग्रेस आदि में जिनको जगह नहीं मिल सकी, उन सभी नेताओं ने जेवीएम या आजसू का दामन थाम चुनाव लड़ने की अपनी मुराद पूरी कर ली.
अब चुनाव परिणाम पर आइये. 79 सीटों पर खड़ी भाजपा के हाथ लगीं 25 ही. 40 सीटों पर लड़े झामुमो को 30 पर विजय मिली, हालांकि फिजिकली एमएलए बने 29 ही. 30 सीटों पर किस्मत आजमा चुकी कांग्रेस के हाथ लगीं 16 और सात सीटों पर उतरे राजद को महज एक सीट पर विजय मिल सकी, वह भी भाजपा से टूटकर आये चतरा प्रत्याशी पूर्व मंत्री सत्यानंद भोक्ता के रूप में. यहां यह ध्यान
देने की बात है कि यूपीए में सीट शेयरिंग के बाद झामुमो के हिस्से में 43 सीटें मिली थीं, जिनमें से एक निरसा क्षेत्र में उसने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी अरूप चटर्जी को समर्थन देते हुए अपना प्रत्याशी नहीं दिया था. इसी प्रकार गठबंधन के तहत कांग्रेस को 31 सीटें मिली थीं, जिनमें से एक बगोदर क्षेत्र में माले के विनोद कुमार सिंह को समर्थन देते हुए अपना प्रत्याशी नहीं उतारा था. इस प्रकार भौतिक रूप से झामुमो 42 सीटों पर और कांग्रेस 30 ही सीटों पर चुनाव में उतरी थी. सात सीटों पर लड़ रही एनसीपी और 14 सीटों पर किस्मत आजमा रही माले को एक-एक जगह जीत मिली. भाजपा को चमकाने के लिए 53 सीटों पर प्रत्याशी देनेवाली आजसू की झोली में महज दो विधायक आये, जबकि सर्वाधिक 81 सीटों पर कैंडिडेचर के बावजूद जेवीएम के घर-आंगन में तीन ही विधायक खेल-तमाशा दिखाने लौट सके.
अशिक्षा, गरीबी और स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अभाव झेल रहे झारखंडियों को जो लोग बेचारा समझते हैं, उनको इन्हीं झारखंडियों ने अपने न्याय-निर्णय से समझा दिया कि कम से कम चुनाव के समय असल ताकत उनके ही हाथों में रहती है. बाहरी दुनिया उनको भले ही भोला-भाला समझती हो लेकिन राजनीतिक समझ में वे किसी से भी पीछे नहीं. आधे से अधिक माननीयों को उन्होंने धूल चटाने में कोई परहेज नहीं किया.
बाबूलाल राजधनवार के अलावा गिरिडीह सीट पर भी खड़े थे लेकिन राजधनवार ने
ही उनका साथ दिया. वहां से झामुमो के नये-नवेले प्रत्याशी सुदिव्य कुमार की जीत हुई. एक सवाल उठ सकता है कि जब झामुमो ने 30 सीटों पर जीत दर्ज की तो 29 ही विधायक कैसे हुए? जवाब, हेमंत सोरेन दुमका और बरहेट दो सीटों पर खुद खड़े थे और दोनों क्षेत्रों में उनकी जीत हुई. इसलिए 30 सीटों पर जीत के बावजूद फिजिकली 29 ही विधायक चुनाव मैदान से लौटे. एक मौजूं सवाल यह भी है कि क्या भाजपा के पास 81 प्रत्याशी नहीं थे, जो उसने दो सीटों हुसैनाबाद और सिल्ली सीट पर प्रत्याशी नहीं दिये? भाजपा के लिए उन दिनों प्रत्याशियों की कोई कमी नहीं थी, वह भी आर्थिक रूप से सक्षम प्रत्याशियों की.
इसके बावजूद हुसैनाबाद में उसकी निगाह इस बार निर्दलीय लड़ रहे बसपा के सीटिंग विधायक कुशवाहा शिवपूजन मेहता पर थी, जबकि सिल्ली में वह आजसू के सुदेश महतो को सपोर्ट कर रही थी. फौरी तौर पर विधानसभा चुनाव में भले ही भाजपा और आजसू अलग-अलग हो गए थे लेकिन केंद्रीय स्तर पर एनडीए के बतौर उनमें एका बनी हुई थी. यह भी समझा जा सकता है कि भाजपा 65 सीटों पर सुनिश्चित जीत का राग चाहे जितना अलाप रही थी, अंदर ही अंदर वह हिचक से भरी हुई थी.
यहां एक राजनीतिक पहलू याद करने लायक है कि जब पश्चिम जमशेदपुर सीट के विधायक और राज्य के खाद्य आपूर्ति मंत्री सरयू राय को लगने लगा कि इस बार भाजपा उनसे कन्नी काटने के चक्कर में है तो उन्होंने कतिपय केंद्रीय नेताओं से साफ-साफ बात की. कोई स्पष्ट जवाब न मिला तो इन्होंने ही जवाब दे दिया कि मुझे टिकट की परवाह नहीं. इस बातचीत के संभवतः दूसरे दिन उन्होंने पूर्वी जमशेदपुर सीट से लड़ने की घोषणा करते हुए यह भी स्पष्ट कर दिया कि निर्दलीय प्रत्याशी होंगे. खासकर महागठबंधन के लिए यह एक बड़ा अवसर था क्योंकि वह भाजपा के दिग्गज नेता और मुख्यमंत्री रघुवर दास की परंपरागत सीट थी. यह सीट कांग्रेस के हिस्से की थी. झामुमो ने कांग्रेस को इसे खाली ही रखने की सलाह दी लेकिन ऐसा न हो सका तो कांग्रेस प्रत्याशी के पक्ष में चुनाव प्रचार के लिए हेमंत सोरेन खुद नहीं गये. (जारी)
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.