Faisal Anurag
तीसरे भारत बंद से किसानों ने केंद्र सरकार को एक और चेतावनी दे दी है कि किसानों के सब्र की परीक्षा लेने से केंद्र बाज आए. पिछले साल नवंबर में जब किसानों ने दिल्ली कूच किया था, उसके बाद से वह तीन बार सफल भारत बंद का आयोजन कर चुके हैं. इस बार के बंद की खास बात तो यह भी है कि इसमें किसानों को दुकानदारों, श्रमिकों और संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों का भी समर्थन मिला है. कम से कम 16 राज्यों में जिस बड़े पैमाने पर किसानों के बंद को समर्थन मिला है, उससे साफ जाहिर है कि केंद्र बहुत दिनों तक किसान आंदोलन को नजरअंदाज नहीं कर सकता है.
एक लोकतंत्र में किसानों के इतने लंबे आंदोलन और उसमें हर दिन बढ़ती भागीदारी के बावजूद आखिर केंद्र सरकार ने बातचीत का रास्ता क्यों बंद कर रखा है. इस साल जनवरी में आखिरी बार किसानों के साथ केंद्र ने संवाद किया था. इसके बाद प्रधानमंत्री ने कहा था कि वे केवल एक कॉल की दूरी पर हैं, किसान कभी भी फोन कर सकते हैं. प्रधानमंत्री ने यही बात कश्मीरी नेताओं के साथ धारा 370 हटाएं जाने के बाद हुए पहले सबमिट में भी कहा था. लेकिन एक कॉल की यह दूरी लगातार लंबी ही होती जा रही है. अमेरिका में नरेन्द्र मादी ने भारत को लांकतंत्र की जननी बताया, लेकिन किसानों से किसी तरह के संवाद से केंद्र का परहेज बताता है कि लोकतंत्र का गुणगान करना और उसके अनुकूल कदम उठाने में अंतर है. किसानों के आंदोलन ने न केवल केंद्र की आर्थिक नीतियों को चुनौती दी है बल्कि देश को नयी कंपनी राज में बदलने के खिलाफ भी आवाज बुलंद किया है. किसानों का यह बंद जहां एक ओर तीन कृषि कानूनों की वापसी के लिए है, वहीं देश के सरकारी प्रतिष्ठानों को कंपनियों को बेचे जाने के खिलाफ भी है. भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में यह पहला ही अवसर है जब किसानों ने कृषि नीतियों के साथ कंपनी राज की आशंका के खिलाफ आंदोलन को गति दी है.
किसानों के आंदोलन को हल्के में ले लेना एक बड़ी राजनैतिक भूल साबित होगी. इस बंद के बाद जिस तरह पंजाब और उत्तर प्रदेश में किसानों ने ताकत दिखायी है, उससे स्पष्ट है किसानों ने बंगाल में भी भाजपा को हराने का जो अभियान चलाया था उससे ममता बनर्जी की बड़ी जीत को एक बड़ा आधार मिला था. कृषि कानूनों को लेकर केंद्र चाहता है कि मामूली संशोधन कर वह किसानों को खुश कर दे. लेकिन किसान साफ कर चुके हैं कि वे कृषि कानूनों की वापसी की बात कर रहे हैं किसी संशोधन का नहीं. केंद्र सरकार तो एमएसपी के जाल में भी किसानों को उलझाने का प्रयास करती रही हैं, लेकिन किसान चाहते हैं कि एमएसपी के लिए एक संवैधानिक प्रावधान किया जाए जिससे केंद्र सरकार अब तक किनारा करती रही है.
मानसून सत्र के दौरान किसानों ने समानांतर संसद का आयोजन कर अपने इरादे को राजनैतिक तेवर दिया था. किसान का आंदोलन हर दिन के साथ ज्यादा राजनैतिक तेवर ग्रहण कर रहा है. 1974 को याद किया जा सकता है जब रेल हड़ताल को इंदिरा गांधी ने संजीदगी से लेने के बजाय उसे कुचलने का प्रयास किया था. 1977 में केंद्र के सत्ता बदलाव में मजदूरों का जो संगठित तेवर दिखा था, उसमें उत्तर और पश्चिम भारत से कांग्रेस पूरी तरह गायब हो गयी थी. इस बार तो किसानों का आंदोलन रेल हड़ताल से कहीं ज्यादा लंबा और असरदार दिख रहा है.
कृषि के विशेषज्ञ रणजीत सिंह घुम्मन का कहना है कि वास्तव में किसानों को सरकार पर भरोसा नहीं है. उन्होंने कहा कि पहले सरकार किसानों को आश्वस्त कर रही थी कि क़ानून बहुत अच्छे हैं और इससे उन्हें लाभ होगा, लेकिन जैसे-जैसे आंदोलन तेज़ हुआ, सरकार ने क़ानूनों में संशोधन करने का विचार बनाया, लेकिन जब किसान अपनी बात पर डटे रहे तो सरकार डेढ़ साल के लिए क़ानूनों को स्थगित करने के लिए तैयार हो गयी. 2014 के आम चुनावों के दौरान भाजपा ने स्वामीनाथन समिति की सिफ़ारिशों को लागू करने का वादा किया था, लेकिन यह पूरी तरह अमल में नहीं आयी, इसलिए किसानों को सरकार के प्रस्तावों पर भरोसा नहीं था.
केंद्र और किसानों का टकराव उस मुकाम पर पहुंच चुका है जहां से कोई भी वापसी नहीं करना चाहता. नरेंद्र मोदी हों या उनके वित्त मंत्री सब के सब आर्थिक सुधारों की ही बात करते हैं. किसानों ने इस सुधारों को कंपनी राज के नए दौर से जोड़ कर गांवों तक संदेश पहुचा दिया है. अब तक 250 से ज्यादा किसान आंदोलन के क्रम में कुर्बानी दे चुके हैं. हरियाण में किसानों ने पुलिस जुल्म का जिस तरह प्रतिवाद किया है, उससे राज्य सरकार को भी पीछे हटना पड़ा है. इस बंद के बाद तो किसानों का हौसला और बुलंद हुआ है.