Faisal Anurag
एक है कांग्रेस, जो है तो देश की सबसे पुरानी पार्टी. चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर जिसे आजकल ओल्ड ओल्ड पार्टी कह कर संबोधित कर रहे हैं. विपक्ष की यह सबसे बड़ी पार्टी है लेकिन पार्टी की दिशा और दशा को लेकर अनेक अंतरविरोधी हालात बने हुए हैं. इस पार्टी के भीतर एक है जी-23. इस जी-23 का कोई भी सदस्य कार्यसमिति में न तो कोई सवाल उठाता है और न ही उन बातों को दुहराने का साहस दिखाता है जो वह अक्सर सोशल मीडिया या निजी पार्टियों में व्यक्त करता रहता है. शनिवार को कांग्रेस की वर्किग समिति की बैठक हुयी. पिछले कुछ हफ्तों में जिस तरह के बयान जी—23 के कुछ सदस्यों ने दिए थे, उससे तो यही उम्मीद बनी थी कि मामला आरपार का साबित होगा. आखिर जिन सीनियर नेताओं को पार्टी नेतृत्व को लेकर असंतोष है उन्होंने चुप्पी क्यों साध ली.
यह तो साफ हो चुका हे कि इस समय कांग्रेस पार्टी पीढ़ियों के टकराव के दौर से गुजर रही है.टकराव का एक बड़ा तत्व तो यह भी है कि पार्टी एक आक्रामक विपक्ष की भूमिका निभाएगी या फिर बीच का रास्ता लेगी जैसा कि अधिकतर विपक्षी दलों ने अपना रखा है. वर्किग कमिटी ने यह तो साफ कर दिया है कि वह नरेंद्र मोदी की सरकार के खिलाफ आक्रमक तौर पर विरोध की भूमिका निभाएगी. कांग्रेस ने पहली बार कहा है कि देश एक निर्वाचित निरंकुशता का शिकार हो चुका है. राहुल गांधी ने इस संदर्भ में पहले भी कई बयान दिए हैं लेकिन यह पहला अवसर है जब जी – 23 के अनेक सदस्यों की मौजूदगी में इसे प्रस्ताव में शामिल किया गया है.
वर्किग कमिटी के प्रस्तावों का राजनैतिक संदेश साफ है कि वह एक ऐसे विपक्ष की भूमिका के लिए तैयार है जो आर्थिक निरंकुशता के साथ राजनैतिक तानाशाही की प्रवृतियों के खिलाफ लड़ेगी. 2014 के बाद से ही देखा जा रहा है कि कांग्रेस में कुछ ही लोग हैं जो खुल कर सरकार की नीतियों के खिलाफ बोलते रहे हैं. ज्यादातर नेताओं ने एक तरह के राजनैतिक संन्यासी का आवरण धारण कर लिया और जोखिम से साफ बचते नजर आते हैं. यहां तक कांग्रेस की सभाओं में भी उनके भाषणों का विश्लेषण किया जा सकता है और संसद के दोनों सदनों के वक्तव्यों में भी. किसी भी लोकतांत्रिक देश में विपक्ष की इस तरह के हालात कम ही देखे जा सकते हैं. यह तो साफ है कि कांग्रेस के सीनियर नेता कांग्रेस में किसी भी तरह के बदलाव के पक्ष में नहीं हैं. वे यह चाहते भी नहीं हैं कि वर्तमान हालात के अनुसार कांग्रेस बदले और आक्रमक तेवर के साथ आमलोगों की समस्याओं को स्वर दे. इसकी राजनैतिक कीमत कांग्रेस पिछल आठ सालों से चुकाती रही है. 2017 के गुजरात चुनाव और 2018 के मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव में कांग्रेस बदले तेवर के साथ उतरी और उसे इसका परिणाम भी मिला. एक जमाने में कांग्रेस के थिकटैंक माने जाने वाले नटवर सिंह पिछले दिनों अचानक जी—23 के नेताओं के पक्ष में खुल कर आ गए. वे एक जमाने में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के बेहद करीब थे. उन्होंने अब ताजा बयान दिया है कि काय्रसमिति में सीनियर नेताओं की चुप्पी तकलीफदेह है. नटवर सिंह पिछले कुछ समय से सोनिया गांधी ओर राहुल गांधी पर प्रत्यक्ष और परोक्ष निशाना साधते रहे हैं.
पिछले ढाई सालों के बाद कार्यसमिति में जब सोनिया गांधी ने खुद को ही पूर्णकालिक अध्यक्ष बताया तब किसी भी ने भी नए अध्यक्ष के चुनाव पर जोर नहीं दिया. हालांकि कांग्रेस ने अगले साल नए कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव का कार्यक्रम घोषित कर दिया है. पंजाब,गोवा और उत्तर प्रदेश के चुनाव कांग्रेस के लिए अग्नि परीक्षा है. कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को अध्यक्ष बना कर पंजाब के लिए एजेंडा सेट कर दिया है लेकिन पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिद्धू चुनावों की तैयारी के बजाय चिट्ठियों के लीक किए जाने का खेल में लगे हुए हैं. अमरेंद्र सिंह पार्टी से अलग होने का मन बना चुके हैं. पंजाब में अकाली और बसपा गठबंधन के साथ आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती पेश कर रही है. लखिमपुर खीरी के जनसंहार के खिलाफ प्रियंका गांधी के प्रतिरोध ने कांग्रेस को नया जीवन दिया है, लेकिन कांग्रेस इसे चुनावों में कितना अपने पक्ष में कर सकेगी यह तो आने वाले दिनों में ही साबित होगा.
इन सबसे पार्टी को एक ओर भीतर की अराजकता और असंतोष से निपटने की बड़ी चुनौती के साथ ही एक बड़े विपक्षी दल होने के कारण अन्य दलों को साथ लाने की राह की बाधाओं से निपटने की भी चुनौती है.