देवघर : आदिकाल में जब कागज़ के आविष्कार नहीं हुए थे, तब धार्मिक ग्रंथों की रचना भोजपत्र पर की जाती थी. पुरातन काल में हिमालय की तराई स्थित घने जंगलों से ऋषि-महर्षि इसे ढूंढ़ कर लेखन कार्य के लिए लाते थे.
आध्यात्मिक नगरी देवघर के एक नर्सरी में भोजपत्र का दुर्लभ पेड़ लगा है. इस पेड़ को लगाने वाले शारदा राउत भारत की समृद्ध आध्यात्मिक विरासत को सहेज रहे हैं. इस भोजपत्र को हिमाचल प्रदेश से लाकर यहां लगाया गया था. इसकी खासियत है कि इस पेड़ को जहां दबाया जाता है, वहां गड्ढ़े हो जाते हैं. इसके छाल की जितनी परत निकालेंगे उतना ही निकलेगा. इसके गुणों को देखते हुए इस विलुप्त प्रजाति की पेड़ का संरक्षण सराहनीय कार्य है.
शारदा राउत भारत की समृद्ध आध्यात्मिक विरासत सहेजनें में लगे हैं
वेद-पुराण के जानकारों के अनुसार सनातन धर्म से संबंधित आध्यात्मिक ग्रंथों की पांडुलिपि भोजपत्र पर लिखी जाती थी. जानकार बताते हैं कि वैसे भी भोजपत्र पर लिखी अक्षरें जल्दी नहीं मिटती, हजारों वर्षों तक जीवित रहती है.
भोजपत्र पर लिखी अक्षरें जल्दी नहीं मिटती, हजारों वर्ष जीवित रहती है
प्राचीन काल में विक्रमशिला, मिथिला, नालंदा या अन्य विश्वविद्यालय में भोजपत्र पर लिखे अनगिनत ग्रंथ उपलब्ध थे, जिसे विदेशी आक्रांताओं ने नष्ट कर दिए. बाद में भोजपत्र पर लिखे कई महत्वपूर्ण दस्तावेजों को अंग्रेजी शासनकाल में भारत से जर्मनी ले जाया गया. आज भी वे दस्तावेज जर्मनी की म्यूनिख पुस्तकालय में सुरक्षित हैं.
जानकरों की राय में भगवान भोलेनाथ की नगरी होने के कारण देवघर में वे सभी दुर्लभ प्रजाति के पेड़-पौधे पाए जाते थे जो आज भी कैलाश के शिवालिक पर्वत पर मौजूद हैं. जानकारी के अभाव में भोजपत्र सरीखे दुर्लभ प्रजाति के कई पौधे नष्ट हो गए. वैदिक युग के इन पौधों को फिर से लगाने की मांग सरकार से की जा रही है.
शारदा राउत 40 साल से अधिक समय से इस पेड़ का संरक्षण कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि भोजपत्र के पेड़ में फूल लगते हैं, फल लगते आज तक नहीं देखा. इसका संरक्षण किया जाना चाहिए. आध्यात्मिक क्रिया-कर्म में आज भी भोजपत्र का इस्तेमाल होता है.
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