Faisal Anurag
निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले.
जब कभी लोकतांत्रिक विरोधों के दमन का सिलसिला शुरू होता है, फैज अहमद फैज की यह नज्म दस्तक देने लगती है. ठीक उसी तरह साहिर लुधियानवी के एक नज्म की पंक्ति इस समय किसान आंदोलन के संदर्भ में सबसे ज्यादा चर्चा में है. साहिर ने कहा था जुल्म फिर जुल्म है, जब बढ़ता है तो मिट जाता है. गाजीपुर बॉर्डर पर गुरूवार की रात जितनी स्याह नजर आ रही थी, सुबह उतना ही उम्मीदों से पुरनुर है. इसका कारण महेंद्र सिंह टिकैत के पुत्र राकेश टिकैत की दृढता और किसानी जज्बा है.
भारत के किसानों के आंदोलन की खासियत यही है कि वह जब कभी अंगड़ाई लेती है, मुकाम के पहले थमती नहीं. चाहे अवध के किसानों का विद्रोह रहा हो या उसके पहले संताल हूल-चंपारण के किसानों के दर्द को आत्मसात कर महात्मा गांधी ने जो हौसला पैदा किया था. वह एकबार फिर गाजीपुर बॉर्डर पर नजर आया.
एक ऐसे निजाम के दौर में जहां असहमति को व्यक्त करना ही देशद्रोह करार दिया जाता हो, यह कोई मामूली बात नहीं है कि एक किसान नेता साहस के साथ मीडिया तंत्र,पुलिस और सरकार के मुकाबले डट जाए. इतिहास में ऐसे क्षण कम ही आते हैं. महेंद्र सिंह टिकैत लाखों किसानों के साथ दिल्ली आ धमके थे. राष्ट्रपति भवन के निकट ही वोट क्लब पर जम कर बैठ गए. किसानों के हुक्के एक सरकार की नींद हराम करने लगे. भारत में वे किसान आंदोलन के सबससे बडे प्रतीक बन गए थे.
महेंद्र सिंह ने दिल्ली को समझाया कि किसानों की चेतना भारत की उस मिट्टी से निर्मित होती है, जिसमें उनका पसीना बहता है और देश को खाद्य सुरक्षा की गारंटी देता है. महेंद्र सिंह टिकैत की वहीं झलक 33 सालों बाद एक बार फिर दिखी जब रातों-रात पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के तमाम गांवों के किसान सड़कों पर उतर गए.
यूपी के मुख्यमंत्री के निर्देश के बाद जो पुलिस बल गाजीपुर में किसानों को भयभीत कर हटाने के लिए जमा था. वही खबर मिलते ही रात लगभग एक बजे वापस हो गया. लालकिले की घटना के बाद लग रहा था कि केंद्र सरकार किसानों के आंदोलन से आसानी से निपटा देगी. लेकिन गुरूवार को ही देर रात से ही नजारा बदल गया और किसानों के गाजीपुर की ओर बढ़ा काफिला केंद्र के लिए चिंता पैदा कर दिया है. इस एक घटना के बाद ही साफ हो गया है कि किसान न तो पीछे हटेंगे और न ही उनका आंदोलन कमजोर हुआ है.
राकेश टिकैत के बड़े भाई नरेश टिकैत तो इस आंदोलन को वापस लने की बात करने लगे, वहीं नरेश टिकैत ने अपने छोटे भाई के दर्द को महसूस कर एलान कर दिया कि अब निर्णायक लड़ाई ही होगी जिसमें किसान जीतेंगे भारत के हाल के इतिहास में कम ही देखा गया है कि चंद घंटों में ही जिस आंदोलन के अवसान का फरमान सुनाया जा रहा था. वहीं पूरी ताकत से उठ खड़ा हुआ है. दिलचस्प बात सोशल मीडिया पर भी देखने को मिल रही है. जिसमें बड़ी संख्या में लोग लिख रहे हैं कि वे पूरी रात सो नहीं सके हैं. किसान आंदोलन के साथ ऐसी एकजुटता तो अब तक नहीं देखने को मिली है. वह लिबरल समूह भी जो लाल किले की घटना के बाद आलोचना कर रहा था. अब फिर आंदोलन के पक्ष में लिख रहा है. किसी भी आंदोलन के लिए यह एक बड़ी कामयाबी है.
राकेश टिकैत के आंसू किसानों को भीतर तक हिला दिया. इसके पहले गुरनाम सिंह चढूनी और जोगेंद्र सिंह उग्राहा भी सिंघू बॉर्डर पर दर्द छलका चुके हैं. आंसू कमजोरी नहीं संकल्प के प्रतीक हैं. 1974 के आंदोलन के समय पटना की एक रैली, जिसने इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाने की भूमिका बना दी थी. उसमें जयप्रकाश नारायण के आंसू भी निकले थे. उन आसुओं ने भारत में नया इतिहास रचा था. टिकैत के आंसू यही संकेत एक बार फिर दे रहे हैं.
इस बीच सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों के निजीकरण की प्रक्रिया को तेज करने के सरकारी एलान के बाद मजदूरों में भी रोष है. मजूदरों का एक बड़ा आंदोलन दस्तक दे रहा है. किसानों के साथ मिलकर यह देश की राजनीति की दिशा बदल दे तो कोई अचरज की बात नहीं होगी. अब किसान कह रहे हैं कि किसानों के मान सम्मान के साथ खिलवाड़ वे बर्दाश्त नहीं करेंगे. राकेश टिकैत किसान प्रतीक बन कर उभरे हैं. लेकिन किसान आंदोलन की ताकत यह है कि उसमें कोई एक नेता निर्णायक नहीं है. राकेश टिकैत ने एक बार फिर कहा है किसान आंदोलन किसी एक नेता पर निर्भर नहीं है.
यह किसानों का आंदोलन है और वहीं इसके नेता हैं. बावजूद इसके 28 और 29 जनवरी की रात एक ऐसे किसान नेतृत्व के उभरने का गवाह है, जो अपनी सादगी के साथ प्रतिबद्ध है. जैसा कि किसी ने एक पोस्ट में लिखा है कि वह फकीर नहीं है, जो झोला उठा के चल देगा. वह किसान है और उसके आसुंओं में भारत माता का अजश्र प्रवाह है, जो निर्बाध हो कर बहने के लोकतंत्र की तलाश में है. किसान आंदोलन इसी समझ के साथ एक ऐसे इतिहास खासियत का गवाह बन उठा है जिसके लिए अतीत से काई उदाहरण की तलाश करना भी मुश्किल है. न तो देशद्रोह के आरोपों का भय है और न ही सत्ता के आतंक का असर.