Lohardaga: स्वतंत्रता संग्राम के सेनानायक स्वर्गीय बुधन सिंह की पुण्यतिथि पर रविवार को लोगों ने नमन किया. लोहरदगा के बुधन सिंह लेन में विभिन्न राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों, धार्मिक संगठनों, परिजनों, समाज के गणमान्य लोगों और आमलोगों द्वारा स्वर्गीय बुधन सिंह की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर श्रद्धा सुमन अर्पित किया गया.
बिहार झारखण्ड के स्वतंत्रता सेनानियों में बुधन सिंह का नाम अग्रिम पंक्ति में लिया जाता है. बुधन सिंह लोहरदगा के स्वतंत्रता सेनानियों के सेनानायक थे. लोहरदगा में शास्त्री चौक में आज भी उनकी याद दिलाती है. उनकी प्रतिमा. उनका जन्म साधारण परिवार में 1912 में हुआ था. इनकी प्रारंभिक शिक्षा तीसरी तक ही हुई. लेकिन व्यहारिक जीवन की पाठशाला में उन्होंने काफी कुछ सीखा.
गांधीजी के विचारों से प्रभावित थे
युवा होने से पहले ही ये सामाजिक जीवन में प्रवेश कर गए और गांधीजी के विचारों से प्रभावित हुए. उन्होंने समाज में व्याप्त विषमता को जड़ से मिटाने का संकल्प लिया. ठाकुरबाड़ी मंदिर में पुजारियों के प्रबल विरोध के बावजूद दलित वर्ग के लोगों को मंदिर में प्रवेश कराया. इसके बाद इन्हें कई लोगों के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा. मंदिर के पुजारी ने इनके खिलाफ मुकदमा कर दिया. इसमें इनकी जीत हुई. 1932 में आज़ादी की लड़ाई में ये जेल भी गए.
क्रांतिकारी साहित्य बेचने के आरोप में इनपर देशद्रोह का मुकदमा चला. दो वर्ष की जेल भी हुई. इस दौरान वे राजेंद्र बाबू, जयप्रकाश नारायण, श्रीकृष्ण सिंह, के बी सहाय और रामवृक्ष बेनीपुरी के संपर्क में आये. इनकी नेतृत्व क्षमता और निखरती गयी. आज़ादी की लड़ाई में ये कई बार जेल गए. जेल में इनपर काफी ज़ुल्म हुआ. घर की कुर्की ज़ब्ती हुई और इनका दूधमुंहा बच्चा गरीबी के कारण दम तोड़ गया.
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लोगों में देशप्रेम की भावना पैदा करते थे
ये एक अच्छे गायक भी थे. संगीत के जरिये लोगों में देशप्रेम की भावना भरते थे. 1940 में कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में राजेंद्र बाबू ने एक शर्त रख दी कि स्टेशन से अधिवेशन स्थल तक वे उसी व्यक्ति से गाड़ी चलवाएंगे जो नियमित खादीधारी हो. बुधन सिंह ही ऐसे कार चालक निकले. उन्होंने राजेंद्र बाबू को कार्यक्रम स्थल तक पहुंचाया. इनके नायकत्व का ही प्रभाव था कि इनके साथ लोहरदगा के टाना भगतों का भी दल था, जिन्होंने आज़ादी में प्रमुख भूमिका निभाई थी.
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बाद में 1942 में 6 महीने और 1943 में फिर दो साल की उन्हें सजा मिली. इनकी लड़ाई आज़ादी तक जारी रही. आज़ादी के बाद भी ये सामाजिक जीवन में सक्रिय रहे. कभी कोई पद या सम्मान की इच्छा नहीं की. सभी धर्मो के कार्यक्रम में ये सक्रिय रहते थे.
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लोहरदगा में रामनवमी जुलुस की शुरुआत का श्रेय भी इन्हें जाता है. ये जब तक जीवित रहे अपने आदर्शों के साथ कभी समझौता नहीं किये. इन्होंने कह रखा था कि मेरे मरने के बाद भी मेरा कफ़न खादी का ही होगा. 31 जनवरी 1969 को इनका निधन हो गया लेकिन अपने विचारों और आदर्शों के रूप में आज भी सबके दिलों में हैं.
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