Faisal Anurag
हर आंदोलन के पीछे विदेशी साजिश देखना इलेक्टेड तानाशाहों का पुराना शगल रहा है. पहले विश्व युद्ध के बाद से ही औपनिवेशिक मानसिकता के शिकार लोग इस नजरिया के हिमायती है. जहां कहीं लोकतंत्र,समानता, इंसाफ और नागरिक अधिकारों के पक्ष में लोग खड़े होते हैं.
इस तरह के आरोप लगाने लगते हैं. वोल्शेविक क्रांति के दौर में तो लेनिन को विदेशी एजेंट घोषित करने का अभियान इतिहास में ताजा है. चीनी क्रांति के समय भी जब जवाहरलाल नेहरू और मानवेंद्र नाथ राय के सहयोग को इसी नजरिए से देखा गया था. दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी के सत्याग्रह को भी इस आरोप का सामना करना पडा था.
1974 के आंदोलन की अब भी खूब चर्चा होती है. खास कर उस आंदोलन से निकले अनेक लोग विभिन्न राजनैतिक दलों के शासन दौर में सत्ता में रहे हैं. अब भी हैं. उस समय दो नारे बहुतों को याद होगा. जब जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को विदेशी इशारे पर चलने वाला बताया गया था. दो नारे खूब मशहूर हुए थे. जेपी समर्थक नारा लगाते थे ब्रेजनेव को दो दो तार इंदिरा की होगी हार. दूसरी ओर जेपी विरोधी नारा लगाते थे निक्सन को दे दो तार जेपी की होगी हार.
निक्सन उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति थे और ब्रेजनेव सोवियत रूस के प्रमुख थे.आजाद भारत में पहली बार विदेशी असर को लेकर बडे पैमाने पर चर्चा हुयी थी. असल में किसी भी आंदोलन को बदनाम करने और उसे लोगों की नजर में अविश्वसनीय बनाने का यह राजनैतिक हथकंडा हर बार उठ खडा होता है. ये ऐसी प्रवृतियों हैं जो मानती ही नहीं कि आंदोलन वास्तविक तकलीफों और नाइंसाफी से पैदा होता है. किसान आंदोलन हो या उसे समर्थन देने वाले सब को निशाने पर एक बार फिर लिया जा रहा है.
इस तथ्य को याद रखा जाना चाहिए कि दुनिया का कोई भी ऐसा आंदोलन नहीं होता जब उसे विदेशी नागरिकों का समर्थन नहीं मिलता. रूस के वोल्शेविक क्रांति के समय तो जॉन रीड जैसे अमरीकी पत्रकार क्रांति के पक्ष में खड़े हो गए. वे मास्को आए थे रिपोरर्टिंग के लिए लेकिन दस दिन दुनिया हिल उठी जैसी मशहूर किताब लिखते हुए वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हो गए. उनकी मृत्यु सोवियत रूस में ही हुई और उन्हें उसी कब्र में दफनाया गया जहां कम्युनिट क्रांति के शीर्ष नेताओं को दफनाया गया है. यह कोई अकेली मिसाल नहीं है. चे ग्वेरा लिखा जो टीशर्ट सबसे ज्यादा बिकता है.
अर्नेस्ट चेग्वेरा पैदा तो अर्जेंटीना में हुए लेकिन क्यूबा की क्रांति में वे फिदेल कास्त्रों के साथ लड़े और फिर वहां वित्त मंत्री बने. बाद में वे कांगो के मुक्ति संग्राम में भाग लिया. बोलेविया की मुक्ति के संघर्ष के दौर में वे अमरीकी और बोलिबियायी सेना की गोलियों से मारे गए. उस समय का दस्तावेज उलट कर देखा जा सकता है उन सभी मुक्ति संग्रामों को भी विदेशी साजिश के आरोप का शिकार होना पडा था.
महात्मा गांधी को तो अनेक विदेशीयों का सहयोग मिला. मीरा बेन के योगदान को कौन विस्मृत कर सकता है. भारत की आजादी के पक्ष में उसी ब्रिटेन के बुद्धिनीवियों के एक हिस्से का समर्थन मिला. चार्ली चैपलिन तो गांधी जी प्रशंसक थे. बावजूद भारत का स्वतंत्रता संग्राम विदेशी साजिश के आरोप से बचा रहा.
लेकिन इमरजेंसी के बाद के आंदोलनों को बदनाम करने में भारत के शासकों की मानसिकता जगजाहिर है. किसान आंदोलन जब तक पंजाब हरियाणा के गांवों तक सिमटा रहा तमाम आरोपों से बचा रहा लेकिन जैसे ही किसानों ने दिल्ली घेरा आरोपों की बौछार हो गयी. इसके पहले नागरिकता कानून के खिलाफ हुए आंदोलन को साजिश के आरोपों से बदनाम करने का प्रयास किया गया था.
इस बार किसानों के आंदोलन को जब दुनिया के विभिन्न हस्तियों का सपोर्ट मिलने लगा तो भारत में खलबली मच गयी. भारत के खिलाडी और फिल्मी दुनिया के लोग सरकार की हिमयात में उतरे तो कुछ खिलाडी और कलाकारों ने इस कोरस में शामिल होने से इंकार कर दिया. इरफान पठान हों या सोनाक्षी सिन्हा के ट्वीट कुछ ओर ही दृश्य प्रस्तुत कर रहे हैं. ग्रेथा थुनबर्ग को भारत में खलनायिका बनाने की कोशिश जारी है. वहीं रिहाना ,जिनका पूरा नाम रोबिना रिहाना फेंटी, के मात्र छह शब्दों के ट्वीट से मचा तूफान शांत ही नहीं हो रहा है.
सवाल यह होना चाहिए कि जो सवाल उठाए गए हैं उनका महत्व हैं या नहीं . ग्रेथा थुनबर्ग को तो एक अन्य ट्वीट में यहां तक कहना पडा है कि वे डर से चुप नहीं होगी. दरअसल नागरिक अधिकारों को लेकर दुनिया भर में बाते की जाती रही हैं. नागरिक अधिकारों के सवाल पर रूस में पुतिन विरोधी नवलेनी को दुनिया भर से समर्थन मिला है तो हांगकांग हो या उक्रेन वहां के लोकतंत्र समर्थकों को भी समर्थन मिले हैं. किसान आंदोलन को मिल रहे समर्थन को इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए न कि उस गुलाम नजरिए से जो हर प्रक्रिया और प्रवृति में साजिश तलाशने की अभ्यस्त है.
हम सब जानते हैं कि फ्रांस की क्रांति से निकला स्वंत्रता,समानता और बंधुत्व का नारा दुनिया के प्रत्येक नागरिक को अनपत्व का अहसास देता है और नाइंसाफी के खिलाफ वास्तविक लोकतंत्र के संघर्ष की प्रेरणा भी.