Faisal Anurag
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ
यह तीसरा आदमी कौन है
मेरे देश की संसद मौन है – धूमिल
अपेक्षा तो यही होती है कि संसद की बहसों से उस तीसरे आदमी की स्पष्ट पहचान हो लेकिन उसकी जगह जब खून से खेती जैसी शब्दावली का इस्तेमाल हो रहा है. आखिर कृषि कानूनों को लेकर राज्य सभा की बहस एक कदम भी क्यो नहीं चल सकी. कृषि मंत्री पे पूरे बहस में जिस तरह एक राज्य ओर खून की खेती का प्रयोग कर उन सवालों को अधूरा ही छोड़ दिया. जो 74 दिनों से दिल्ली की सरहदों से उठाए जा रहे हैं. यही नहीं प्रधानमंत्री ने भी कह दिया कि देश के कुछ ही हिस्सों में किसानों के एक छोटे से तबके को ही इन कानूनों को लेकर कुछ आपत्ति है. तो क्या यह माना जा सकता है कि न तो राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के महापंचायतों से उठ रहे. राजनीतिक तूफान को नजरअंदाज किया जा रहा है बल्कि 151 आंदोलनरत किसानों की मौत भी सरकार की संवेदना नहीं जगा सकी हैं.
हांलाकि प्रधानमंत्री के एक फोन कॉल की दूरी कहे जाने के बावजूद सरकार के नजरिए में कोई बदलाव नहीं आया है. कृषि मंत्री ने विपक्ष को यह कहते हुए घेरने का प्रयास किया कि वे ही बताएं कि इन कानूनों में काला क्या है. सच्चाई तो यह है कि 11 दौर की वार्ताओं में किसान नेताओं ने सरकार को बता दिया है कि ये तीनों कानून किस तरह काले कानून हैं और वे भारतीय कृषि संस्कृति के खिलाफ किस तरह हैं. राज्यसभा में केंद्र सरकार ने एक बार तमाम सवालों को दरकिनार कर स्पष्ट किया है कि वह कानूनों को लेकर पुनर्विचार के लिए तैयार नहीं है. जब कि बहस के दौरान विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने अंग्रेजों के जमाने के उस किसान आंदोलन का हवाला भी दिया जिसका नेतृत्व भगत सिंह के चाचा सरकार किशन सिंह जी ने किया था और जिसके दौरान पगडी संभाल जट्टा, लूट गया. तेरा माल जैसा गीत उभर कर आया था. उस कानून को किसानों के आंदोलन के दबाव में अंग्रेजो का पवापस लेना पडा था.
लेकिन आजाद भारत की सरकार देशव्यापी किसान प्रतिरोध को चंद लोगों का बता कर कारपोरेट हितों के खिलाफ जाना नहीं चाहती है. किसानों के बीच इस संदेश का असर यह है कि यह लडाई उनके मान सम्मान की हो गयी है. किसानों के दर्जनों महापंचायतों में जिस तरह किसान उमड़े हैं उससे जाहिर होता है कि आने वाले दिनों में किसान बनाम सरकार की लडाई राजनैतिक तौर पर आरपार की होगी. चौधरी राकेश टिकैत संकेत भी दे चुके हैं कि किसानों ने यदि इन तीनों कानूनों के साथ सत्ता वापसी का सवाल भी जुड सकता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिस तरह 2013 में उठे सप्रंदायिक विभाजन के सवाल को लेकर पछतावा दिख रहा है. किसान नेता खुल कर बोल रहे हैं कि उनसे गलती हो गयी थी. अब इसका दुहराव नहीं होगा. शामली में 144 लगाए जाने के बाद भी भारी संख्या में किसान जमा हुए. नरेंद्र मोदी और आदित्यनाथ के खिलाफ बातें की जा रही हैं.
प्रधानमंत्री ओर उनकी पूरी सरकार का जोर इस बात पर है कि आंदोलन को सीमित इलाके का विरोध बता दिया जाए. सिंघु बॉर्डर की जबरदस्त घेरेबंदी की गयी है और सरकार की कोशिश है कि कोई प़्रकार अपना कैमरा ले कर वहां नहीं जा सके. इसका परिणाम यह हो रहा है कि हरियाणा और पंजाब से महिला पुरूष बडी संख्या में वहां पहुच गए हैं. पानी नहीं पहुचने दिया जा रहा है और यहां तक कि बिजली भी काट दी गयी है.
इंटरनेट बंदी तो लगी ही है. हरियाण में इंटरनेटबंदी कर सूचनाओं के प्रसार को रोकने की कोशिश को किसानों ने परंपरागत तरीकों का इस्तेमाल कर बेमानी कर दिया है. इंटरनेट बंदी,धारा 144 और नागरिक सुविधाओं को रोकने के प्रयास ने किसानों के बीच सरकार को ओर ज्यादा अलोकप्रिय बनाना शुरू कर दिया है. देश का मूड जानने के लिए किए गए एक सर्वेक्षण में भी कहा गया हे कि योगी और मोदी की निजी लोकप्रियता में किसानों के बीच भारी गिरावट दर्ज की गयी है.
राजनैतिक तौर पर किसान प्रभावी तबका है. बावजूद उसके प्रतिरोध के साथ किए जा रहे कठोर व्यवहार उस मौन का गवाह है जिसके बारे में पिछली सदी के सातवें दशक में धमिल ने सवाल पूछा था. खून की खेती की शब्दावली भी बता रही है कि कृषिमंत्री राजनैतिक इतिहास से कुछ सबक लेने को तैयार नहीं है. यदि 1984 में खून से राजनीतिक खेती हुई थी तो उस क्रम में 2002 भी है. भारत लोकतंत्र सूचकांक में लगातार पिछडता ही जा रहा है. दुनिया भर में भारत की एक अनुदार छवि बन रही है जो असहमति को कुचलता है. यून के मानवाधिकार समूह ने शांतिपूर्ण आंदोलनों में सरकार को सक्षम नहीं होने का सुझाव दे रहा है तो इसे सामान्य नहीं माना जा सकता है.