Faisal Anurag
बाउल,रवींद्र संगीत और रसोगुल्ला की बंगाली राजनीतिक संस्कृति जिसे चैतन्य महाप्रभु,ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राजा राम मोहन राय, मइकल मधुसूदन दत्त, रवींद्र नाथ टैगोर, काजी नजरूल इस्लाम और सत्यजीत राय ने प्रगतिशील नवजगरण से समृद्ध किया. राजनीतिक हिंसा,टकराव और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की आशंका का शिकार क्यों है? आजादी के बाद से हुए अब तक आमचुनावों में सांप्रदायिकता का सवाल हाशिए पर रहा है. हालांकि बंगाल सांप्रदायिक दंगों की क्रूरता का दंश झेला और हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के गठबंधन का गवाह भी रहा है. 2021 एक ऐसे आयाम की ओर बढ़ रहा है, जिसमें धार्मिक प्रतीकों की अहमियत बढ़ती जा रही है. पहली बार जहां कपिल मुनी राजनीतिक प्रतीक बनाए जा रहे हैं. राम बनाम काली-दुर्गा का प्रतीक वोट के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं.
अमित शाह बंगाल का बार-बार दौरा कर रहे हैं और हर बार धार्मिक सवालों को ही महत्व दे रहे हैं. नरेंद्र मोदी के बंगाल सरोकार में भी आर्थिक विकास के सवालों की तुलना में प्रतीक राजनीति का ही महत्व दिखता है. सवाल उठता है कि तो क्या बंगाल की राजनीति हिंदी पट्टी की तरह ही नफरतों को स्वीकार कर लेगी.
अमित शाह ने दो दिनों के दौरे में गंगासागर के प्रतीक को बंगाली जनमानस में भाजपा की पहुंच बनाने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है. बंगाल की विधिता को एकरूपता देने के प्रयास कितने कामयाब होंगे, यह तो वक्त ही साबित करेगा. लेकिन 1947 के भयावह दंगों वाले बंगाल के लिए यह संकेत सुकुन देने वाला तो नहीं ही माना जा सकता है.
बंगालियों को अपनी जातीय यानी क्षेत्रीय संस्कृति पर गर्व रहा है. इस संस्कृति की विशेषता हिंदी पट्टी से भिन्न रही है. बंगाल देश के उन चंद राज्यों में है, जहां के भूमि सुधार कार्यक्रम ने सामाजिक विषमता को कम किया है. बंगाल में भी वर्ण-जाति के संस्कार हैं, लेकिन उसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति पर बंगाली जातीयता हावी रही है. यही कारण है कि हिंदू बनाम मुसलमान के संदर्भ में बंगाल की राजनीति की कल्पना नहीं की जाती रही है. लेकिन 2021 की आक्रमक राजनीति का मुख्य टकराव तो यही है कि बंगाली जातीयता बनाम सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का विभाजन तेज है.
भाजपा की पूरी कोशिश उत्तर प्रदेश की तर्ज पर बंगाल की राजनीति में राष्ट्रवादी रूझान के नाम पर ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज करना है. यह वही प्रक्रिया है, जिसने उत्तर प्रदेश की राजनीति में न केवल बहुजना राजनीति को अप्रसांगिक बनाया, बल्कि समाजवादियों के सामाजिक समीकरण को छिन्न-भिन्न कर दिया. पश्चिमी उत्तर प्रदेश जहां किसान आंदोलन जोरों पर है, अब 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों की भूमिका पर शर्मींदगी व्यक्त कर रहा है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अपनी गलतियों से सबक लेने में 8 साल लग गए. बंगाल की राजनीति उसी दिशा की ओर है. हालांकि जिन सवालों से अमित शाह असम जाकर बचने की कोशिश करते हैं. उसी सवाल को बंगाल में हवा दे रहे हैं. वह सवाल है घुसपैठियों का.
बंगाल में पूर्व बंगाल से आए लोगों के अपने दर्द हैं और इस चुनाव में उसे हवा दी जा रही है. पूर्वी बंगाल जो आज बांग्लादेश है वहां हिंदू और मुसलमान आ कर बसे हैं. बांग्लादेश की आजादी के समय बड़ा पलायन हुआ था और बंगाल में बड़ी आबादी को जगह दी गयी थी. 1947 के बाद से ही इस तरह के सवाल बंगाल में हैं. लेकिन बंगाल की राजनीति में ज्यादातर आर्थिक और दूसरे सवालों की प्रमुखता रही है. ममता बनर्जी ने भी वामफ्रंट को बेदखल करते हुए किसानों के सवालों को ही प्रमुखता दी थी. वैसे तो बंगाल की सामाजिक संस्कृति जितने उद्दात मूल्यों पर आधारित है. राजनीति में हिंसा और टकराव उतना ही भयावह है.
भारतीय जनता पार्टी बंगाल के माध्यम से देश को यह संदेश देने का प्रयास कर रही है कि वह उन राज्यों को भी जीत सकती है. जहां वह हाल तक हाशिए पर रही है. बंगाल इसलिए भी अहम बनाया जा रहा है कि इस समय किसान आंदोलन से भाजपा परेशान हैं. बंगाल के बहाने वह यह दिखाना चाहती है कि उसकी नीतियों के प्रति वोटरों का विश्वास बना हुआ है. यह दीगर बात है कि पंजाब के निकाय चुनावों में उसे अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा है.
भाजपा के नेता भी समझ रहे हैं कि इस समय कम से कम 40 लोकसभा सीटों पर उसे नुकसान की संभावना है.
हालांकि किसान आंदोलन के असर को कम कर भाजपा देखती रही है. 2019 के लोकसभा की चुनावी कामयाबी इन्हीं आधारों पर चल कर हुई थी. ममता बनर्जी की सबसे बड़ी चुनौती सत्ताविरोधी रूझान को संभालने और धार्मिक विभाजन के बीच अपनी राजनीतिक विरासत को बचाना है. लेकिन इस पूरे शोर में वामफ्रंट और कांग्रेस गठबंधन को खारिज-सा कर दिया गया है. इस गठबंधन की अहमियत को कम कर आंकना उचित जान नहीं पड़ता.