Sriniwas
भारतीय न्याय प्रक्रिया की दुरूहता और सुदीर्घता पर किसी फिल्म में सन्नी देवल का एक संवाद एकदम सटीक बैठता है : तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख…
गत 19 फरवरी को जब लालू प्रसाद की पेरोल या जमानत पर रिहाई फिर टल गयी, तो वह डॉयलॉग एक बार फिर सार्थक हुआ. झारखंड हाइकोर्ट के माननीय न्यायाधीश ने लालू प्रसाद की जमानत याचिका खारिज करते हुए टिप्पणी की कि अभी तो उनकी सजा की आधी अवधि भी पूरी नहीं हुई है.
इसका एक अर्थ यह हुआ कि सजा की आधी अवधि पूरी होने के पहले (जो दो माह बाद पूरी होगी) ऐसी याचिका पर विचार नहीं हो सकता. तो सवाल उठता है कि इसके पहले इसी याचिका पर पिछली अनेक तारीखों पर अलग अलग कारणों से अगली तारीख क्यों दी जाती रही? अभियोजन पक्ष (सीबीआई) ने ही इस तर्क के आधार पर याचिका का विरोध क्यों नहीं किया? क्या प्रारंभ में ही इस याचिका को खारिज नहीं कर दिया जाना चाहिए था?
अदालत की मंशा पर संदेह करना तो उचित नहीं है (वैसे इसमें जोखिम भी है), लेकिन सीबीआई, केंद्र सरकार, केंद्र में सत्तारूढ़ जमात, उसके समर्थकों और समाज के एक तबके में लालू प्रसाद के प्रति दुराग्रह भरा हुआ है, यह संदेह करने के अनेक कारण हैं.
सभी लोगों को जातिवादी मानना गलत है
फिलहाल इस याचिका को छोड़ देते हैं. अब तो लालू प्रसाद दोष सिद्ध अपराधी और सजायाफ्ता हैं. कोई कुछ भी कह सकता है. लेकिन ये तो ऐसे आरोप लगने के पहले से ‘स्वयंसिद्ध’ दुष्ट व खलनायक रहे हैं! निश्चय ही भ्रष्टाचार के कारण उनसे चिढ़ने वाले सभी लोगों को जातिवादी मानना गलत है. मैं भी नहीं मानता. मगर यह भी मानता हूं कि एक तबके में उनके प्रति दुराग्रह है. अतीत के चंद प्रसंगों पर गौर करें –
लालू प्रसाद के खिलाफ वारंट जारी हो चुका था. संभवतः वर्ष 1996 में. वे मुख्यमंत्री पद पर थे. घोषणा कर चुके थे कि तय दिन तय समय में अदालत में समर्पण करेंगे. मगर सीबीआई अफसर यूएन विश्वास (अब दिवंगत) उन्हें उसके पहले गिरफ्तार करने पर आमादा थे. यह कानूनन गैरजरूरी था. पर राज्य सरकार (राजद की) स्वाभाविक ही, इसमें उनकी मदद करने को तैयार नहीं थी.
सैन्य अधिकारी ने जज के आदेश का पालन करने से इनकार कर दिया
लालू समर्थकों के संभावित हंगामे का हवाला देकर श्री विश्वास एक दिन पहले आधी रात में हाईकोर्ट के एक माननीय न्यायाधीश के आवास पर पहुंच गये कि वे सेना को अपनी एक टुकड़ी उपलब्ध कराने का लिखित आदेश दें. माननीय ने तत्काल सादे कागज पर आदेश जारी कर दिया. मगर दानापुर छावनी के सैन्य अधिकारी ने माननीय जज के आदेश का पालन करने से इनकार कर दिया. यह कह कर कि सेना ऐसे मामलों में सिर्फ नागरिक प्रशासन के अनुरोध पर काम करती है! माननीय न्यायाधीश को इतनी मामूली बात की जानकारी नहीं थी!
अगले दिन निर्धारित समय पर लालू प्रसाद ने कोर्ट में सरेंडर कर दिया. बहुतों के कलेजे में ठंडक पड़ने से रह गयी. संबद्ध माननीय न्यायाधीश कोई ‘झा’ उपाधिधारी थे. महज संयोग!
अलग अलग मामले में लालू प्रसाद के खिलाफ वारंट जारी होता रहा
चारा घोटाले के झारखंड से जुड़े हर अलग अलग मामले में लालू प्रसाद के खिलाफ वारंट जारी होता रहा. हर बार जमानत की अर्जी पहले निचली अदालत में, फिर हाईकोर्ट में खारिज होती. अंतत: सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलती. तब मैं एक अखबार से जुड़ा था. कुछ संपादकीय सहयोगियों के सामने मैंने यूं ही कहा कि जमानत अंतत: मिलनी ही है, तो लालू प्रसाद को इतना दौड़ाने, परेशान करने में कुछ लोगों के कलेजे को ठंडक पड़ने के अलावा क्या हासिल होता है? एक सहकर्मी ने ईमानदारी से कहा : चाहे जो कहिये श्रीनिवाजी, ठंडक तो पड़ती है! ‘संयोग’ से’’ वह सहकर्मी सवर्ण था!
चारा घोटाले के एक मामले में लालू प्रसाद की जमानत अवधि खत्म होने वाली थी. पटना हाईकोर्ट में उनकी ओर से जमानत अवधि बढ़ाने की याचिका दायर थी. वह जमानत पर रहने का अंतिम दिन था, उसी दिन सुनवाई होनी थी. माननीय न्यायमूर्ति (नाम याद नहीं है) किसी कारण विलंब से कोर्ट पहुंचे. कुछ मामले निपटाने में समय बीत गया. अगला नंबर लालू प्रसाद का था.
लेकिन जज साहब यह कहते हुए उठ खड़े हुए कि इस मामले की सुनवाई अब अगले दिन होगी. अगले दिन शनिवार था, जो हाईकोर्ट में अवकाश का दिन होता है. यानी सुनवाई सोमवार को ही हो सकती थी. सब कुछ ‘नियमानुकूल’ ही हुआ. पर इसका व्यावहारिक नतीजा यह हुआ कि लालू प्रसाद को दो दिनों के लिए जेल में रहना पड़ा. जाहिर है, कुछ लोगों के कलेजे में ठंडक पड़ गयी.
फिर भी इसे दुराग्रह नहीं कहा जा सकता!
मैं कानून और न्याय विधान का जानकार होने का दावा नहीं करता, फिर भी जानकारों से एक सवाल करना चाहता हूं इतना जनता हूँ कि भारतीय कानून में भी किसी अपराधी को अलग अलग मामलों में मिली सजा को जोड़ कर जेल में रखने का प्रावधान है. मगर किसी व्यक्ति को तीन अलग अलग अपराध के लिए दस-दस साल कैद की सजा होती है, तो अमूमन तीनों सजाओं की गिनती एक साथ की जाती है. यानी उसे कुल दस साल ही जेल में बिताने पड़ते हैं, न कि कुल तीस साल. लेकिन लालू प्रसाद को अलग अलग मामलों में मिली सजा की अवधि एक साथ नहीं, सभी मामलों में मिली सजा को जोड़ कर बितानी होगी.
मैं जानना चाहता हूँ कि लालू प्रसाद के पहले और इनके अलावा कितने अपराधियों के साथ ऐसा किया गया? मुझे नहीं पता. लेकिन यदि लालू प्रसाद अपवाद हैं, तो भी इसे ‘दुराग्रह’ का नतीजा नहीं माना जा सकता!
गंभीर आरोपों से घिरे नेता ‘गंगा स्नान’ कर पवित्र हुए जा रहे हैं
बेशक लालू प्रसाद अपने किये की सजा भोग रहे हैं. उनका कोई अंधमर्थक ही कह सकता है कि वे पूरी तरह निर्दोष हैं और उनको साजिश के तहत फंसा दिया गया. लेकिन सच यह भी है कि जिस तरह उनकी छवि देश के ‘भ्रष्टतम’ नेता के रूप में बनायी गयी है, वह दुराग्रह से प्रेरित और अतिशयोक्तिपूर्ण है.
यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि यदि उनके नाम के साथ लगी उपाधि कुछ और होती; या उन्होंने सवर्ण प्रभुत्व और आक्रामक हिंदुत्व को चुनौती देने की हिमाकत नहीं की होती, तो शायद उनके साथ कुछ भिन्न सलूक होता. सारी दुनिया यह देख ही रही है कि किस तरह दूसरे दलों के कथित भ्रष्ट और गंभीर आरोपों से घिरे नेता ‘गंगा स्नान’ कर पवित्र हुए जा रहे हैं.
यह आशंका भी अकारण नहीं है कि जेल से लालू प्रसाद जीवित न निकल सकें बहुतेरे लोग ऐसी कामना तो करते ही होंगे. जो ऐसा करने में सक्षम हैं, उनमें से अनेक की यह मंशा भी हो सकती है.
डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं.