Anand Kumar
झारखंड विधानसभा में बुधवार को तीन वाकये हुए. ये वाकये बताते हैं कि संसदीय प्रणाली में चुनकर आये लोगों की भूमिका कैसी होनी चाहिए और किस तरह यह बदलती जा रही है. बुधवार को सदन के अंदर प्रश्नकाल में विपक्षी विधायक बिरंची नारायण के सवाल पर राज्य के पेयजल मंत्री मिथिलेश ठाकुर ने कहा कि उन्हें जानकारी नहीं है कि राज्य में सांसद और विधायक निधि से कितने चापाकल लगाये गये हैं. वे पता करके बतायेंगे.
बुधवार को ही निर्दलीय विधायक सरयू राय सदन में खान विभाग के अधिकारियों के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस डालते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि खान विभाग के अधिकारी उनके द्वारा मांगे गये सवालों के सही और स्पष्ट जवाब नहीं दे रहे. वे बार-बार घुमा-फिरा कर जवाब देते हैं. इसलिए सरयू राय को प्रिविलेज नोटिस डालना पड़ता है. तीसरा वाकया पहले वाकये के साथ घटा. भाजपा विधायक सीपी सिंह ने ‘हाथी के पांव में सबका पांव’ की लोकोक्ति सुनाकर यह कहने की कोशिश की कि जब आसन ही सतही और अस्पष्ट जवाब पर चुप लगा जायेगा, तो सवाल पूछनेवालों के पास जनहित के सवालों पर जवाब मांगने का कोई रास्ता ही नहीं बचेगा.
प्रश्नकाल का संसदीय प्रणाली में सबसे पावन स्थान है. यह परंपरा रही है कि सांसदों अथवा विधायकों के सवालों का जवाब तैयार करने में पूरा विभाग कड़ी मेहनत करता है. संबंधित मंत्री भी विस्तृत अध्ययन करने के बाद ही उसका उत्तर देते हैं. क्योंकि लगभग 15 दिन पूर्व ही लिखित रूप से सरकार से पूछे गये सवाल के लिखित जवाब के बावजूद सदस्यों को उसी संबंध में और दो पूरक प्रश्न पूछने की इजाजत होती है.
ऐसे ही प्रश्न में मिथिलेश ठाकुर फंस गये और उन्हें कहना पड़ा कि वे जानकारी लेकर बतायेंगे. जाहिर है कि उनके पास अपने ही विभाग की जानकारी का अभाव था. यह कहकर उन्होंने सदन में अपनी फजीहत करा ली, जबकि सरयू राय और सीपी सिंह तपे-तपाये अनुभवी नेता हैं. उन्हें सदन की कार्यप्रणाली का विस्तृत ज्ञान है. उनके पास सवालों के जवाब जानने की जिज्ञासा है. वे अपने सवालों को महत्व देते हैं और पूरा जवाब जाने बिना संतुष्ट नहीं होते. यही कारण है कि राय प्रिविलेज नोटिस डालते हैं और सीपी सिंह आसन से कहते हैं कि जब आप ही संतुष्ट हो जायेंगे तो हमारे सामने क्या रास्ता बचेगा.
संसदीय प्रणाली में सदन की कार्यवाही के कुछ प्रमुख उद्देश्य हैं. इनमें भूमि, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे राज्य सूची में शामिल विषयों पर कानून बनाना, सार्वजनिक व्यय को मंजूरी देना, लोक महत्व के मामलों पर चर्चा करना और नीति के लिहाज से प्रासंगिक सवालों के जरिये सरकार को जवाबदेह बनाना शामिल हैं. लेकिन मतदाताओं में असंतोष का डर एक मंत्री की इन वास्तविक जिम्मेदारियों (ये जिम्मेदारियां संविधान में परिभाषित नहीं हैं) से उनका ध्यान हटा देता है.
दूसरा कारण यह है कि हमारा चुनावी ढांचा ऐसा है कि इसमें कोई व्यक्ति चुन कर सांसद, विधायक और मंत्री बन सकता है. अब यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह संसदीय व्यवस्था को जानने-समझने में कितनी रुचि रखता है. आज भी ऐसे सांसदों और विधायकों की कमी नहीं है जो रात-रात भर जाग कर अपने सवाल तैयार करते हैं. सवालों के संबंध में पूरी तैयारी और जानकारी से लैस होकर सदन में आते हैं. वहीं ऐसे भी मंत्री हैं जो विभागों अथवा लोकहित से जुड़े सवालों और संभावित पूरक प्रश्नों पर पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद ही सदन के अंदर जवाब देने उठते हैं और अस्पष्ट और अधूरे जवाब नहीं पढ़ते. लेकिन इसमें बहुत परिश्रम, अध्ययन और समय लगता है.
आज ज्यादातर मंत्रियों के पास न तो इतना समय है और न ही इच्छा. लोगों को भी मंत्रीपद की चमक-दमक और ताम-झाम आकर्षित करता है. लेकिन असल चीज यह है कि कोई भी व्यक्ति एक मंत्री, सांसद और विधायक के रूप में इस बात से नहीं जाना जाता कि उसके पास कितने बाडीगार्ड थे या वह कितनी बार सांसद अथवा विधायक रहा. लोग किसी मंत्री सांसद या विधायक को उसके काम से याद रखते हैं. इस बारे में लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष जीवी मावलंकर का यह कथन हमेशा आदर्श रहेगा जो उन्होंने सांसदों के बारे में कहे थे. उन्होंने कहा था कि ‘लोग आपको इसलिए याद नहीं रखेंगे कि आपने कितने नये कानून बनाये बल्कि इसलिए संसद याद की जायेगी कि उसने कितने लोगों की जिंदगी में बदलाव किया’.