Vandana Tete
भाषाओं के लुप्त होने, उनके खतरे की बात लंबे समय से की जा रही है. अपनी मातृभाषा खड़िया को लेकर मैं आशान्वित हूं. इस आशा का आधार है. खड़िया बोलने वाले आदिवासियों का स्थिर आंकड़ा मुझे उम्मीदों से भरता है. यह लंबे समय से लगभग पौने तीन लाख की संख्या में है. इनमें ज्यादातर अपनी मातृभाषा बोलते हैं. गांवों में अभी भी मां बच्चों से खड़िया में ही बातें करती हैं. समस्या तब होती है जब शहर में रहते हैं और तथाकथित सभ्यता का चश्मा पहन लेते हैं. वे लोग ही अपनी मातृभाषा (खड़िया) नहीं बोल रहे.
बहरहाल, खड़िया बोलने वालों की संख्या अपने हिसाब से बढ़ रही है. सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे बच्चे अपनी संस्कृति की ओर सचेष्ट हुए हैं, लौट के अपनी जड़ों को टटोल रहे हैं. ये वे बच्चे हैं जिन्हें छोटी उम्र में स्कूल जाने पर अपनी भाषा बोलने से रोक दिया गया. अपनी भाषा बोलने पर दंडित किया गया. इस प्रतिबंध के माहौल में वे बढ़े. उन्होंने अपना मुकाम हासिल किया. इस मुकाम को पाने के बाद भी बच्चों ने खुद को अधूरा महसूस किया. जब अहसास जागा तो वे अपनी जड़ों की ओर लौटने लगे. जल, जंगल, जमीन की भूख जगने पर वे उन गांवों में लौटे जहां सड़कें नहीं है, जहां बिजली नहीं है. इन बच्चों के लिए पुरखों की जमीं का यह माहौल नया था. बावजूद इसके वे लौट रहे अपनी भाषा की ओर, अपनी संस्कृति की ओर. इसे मैं भाषा संस्कृति की ताकत ही कहूंगी.
इतिहास पर काम की दरकार
खड़िया का लिखित इतिहास नहीं. हालांकि छिटपुट लिखा गया है, पर विस्तृत और एकीकृत काम नहीं हुआ है. इसका इतिहास बुजुर्गों के पास है जिसे बात कर लिपिबद्ध करना होगा. यह इतिहास पुरखा कथाओं में फैला है, जिसे समेटने के लिए व्यक्तिगत और संस्थागत प्रयास हो रहे हैं. और भी होने की दरकार है.
हटा दें आठवीं अनुसूची
जहां तक आठवीं अनुसूची की बात है, मैं कड़े शब्दों में इसका विरोध करती हूं. मैं चाहती हूं कि संविधान से आठवीं अनुसूची हटा दी जाए. यह विभेद लाती है. किस आधार पर किसी भाषा को आठवीं अनुसूची को शामिल किया गया, यह कभी जाहिर नहीं होता. हाथी की पूंछ वाली कहानी की याद आ जाती है. इसमें जितनी भी भाषाओं को शामिल किया गया है, वे सभी समृद्ध भाषाएं हैं. ऐसी भाषाएं हैं जिन्हें किसी मदद की दरकार नहीं है. लुप्त प्राय तो बिरहोर जैसी भाषाएं हैं. सरकार का संरक्षण-संवर्द्धण तो ऐसी लुप्तप्राय भाषाओं को मिलनी चाहिए. झारखंड की बात करूं तो संथाली यहां आठवीं अनुसूची में शामिल है. इसके लुप्त होने की चिंता नहीं, क्योंकि यह बड़े भू-भाग में बोली समझी लिखी जाती है. उड़ीसा, बंगाल, झारखंड, आसाम, नेपाल….इन सभी जगह संथाली की मौजूदगी है.
बावजूद इसके इस भाषा को सरकारी संरक्षण मिला और बिरहोर जैसी लुप्त प्राय भाषा उपेक्षित रही तो इसका आधार समझ में नहीं आता. सरकारी संरक्षण कभी भी भाषा के विकास का आधार नहीं बन पाती, जब तक खुद भाषा के प्रति प्रेम नहीं हो. जब मामला लाभ का होता है तो कई बार भाषा राजनीति की भी शिकार होती हैं, ऐसे में उसकी समृद्धि कम होने लगती है. उदाहरण के तौर पर मैं संथाली की ही बात करुंगी. आठवीं अनुसूचि में शामिल होने के बाद अचानक संख्या की दृष्टि से लेखन का ग्राफ नीचे गिरा. दरअसल आठवीं अनुसूची भाषाओं के बीच विभेद ही लाती है. मैं संविधान से इसे हटाने की पुरजोर वकालत करती हूं.
नहीं गठित हुई झारखंड साहित्य अकादमी
बेशक किताबों के प्रकाशन के लिए, पठन-पाठन के लिए, प्रचार-प्रसार के लिए सरकारी मदद की दरकार होती है. हमारे पास मेहनत है, प्रतिभा है, सरकार अगर सही तरीके से मदद करे तो हम स्वयं ही समृद्ध होने का माद्दा रखते हैं. झारखंड गठन को इतने साल हो गए. एक अकादमी तक गठित नहीं हुई. अगर अकादमी गठित होती तो स्थानीय भाषाओं में सजृन के लिए प्रोत्साहन मिलता. किताबों के प्रकाशन में सहूलियत होती. भाषा के प्रचार-प्रसार में मदद मिलती. सरकार से मदद की बात करती हूं तो इसलिए की अपने देश में कल्याणकारी सरकार की अवधारणा है.
डिस्क्लेमर: लेखिक राइटर हैं, ये इनके निजी विचार हैं.