Arun Kamal
अरुण कमल समकालीन कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं. प्रगतिशील विचार धारा के प्रखर कवि हैं जिनकी कविताओं में समाज के निचले पायदान पर खड़े, उपेक्षित सर्वहारा वर्ग की आवाज बुलंद होती है. काव्य संग्रह नए इलाके के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. पिछले दिनों झारखंड साहित्य अकादमी स्थापना संघर्ष समिति के एक कार्यक्रम में शरीक होने रांची आए थे. इस अवसर पर चेतना झा ने उनसे खास बातचीत की. पेश है साक्षात्कार का एक अंश….
प्रश्न : इन दिनों किसे पढ़ रहे हैं?
उत्तर : अपने काम के सिलसिले में रंजन बंदोपाध्याय का उपन्यास मृणालिनी की आत्मकथा पढ़ रहा हूं. यह एक कल्पित आत्मकथा है. मृणालिनी रविंद्रनाथ टैगोर की पत्नी हैं. एक अन्य उपन्यास जो मैं पढ़ रहा हूं, वह मराठी भाषा में है. उपन्यास का नाम है “नदीइष्ट.” यह नदी के आवेश पर है.
प्रश्न : समकालीन रचनाकारों में अपनी पसंद के कुछ नाम बताएं? झारखंड के लेखकों में किसे पढ़ा है? किसी का नाम लेना चाहेंगे.
उत्तर : समकालीन एक बड़ा शब्द है. इसमें वे भी आते हैं जो हमसे पहले से लिख रहे और आज भी सक्रिय हैं. हमारी पीढ़ी के लोग भी आते हैं. नए लोग भी हैं. नए लोगों में कई शुरुआत में बढ़िया लिख रहे होते, फिर लिखना छोड़ देते हैं. इसलिए नए के लिए कहना मुश्किल. झारखंड में कई नाम हैं. भारत यायावर जी याद आते हैं जो गुजर गए. शंभु बादल, विद्याभूषण, रतन वर्मा, रणेंद्र, पंकज मित्र, शंभू बादल,जसिंता केरकट्टा, महादेव टोप्पो, महुआ माझी, रवि भूषण, निर्मला पुतुल, अशोक प्रियदर्शी…ये वरिष्ठ रचनाकार लगातार सक्रिय हैं. रणेंद्र की गूंगी रुलाई का कोरस पढ़ा. महुआ माझी की मैं बोरिशाइल्ला पढ़ा. विद्याभूषण जी की नई किताब कलम को तीर होने दो देखा. गोड्डा से विनय सौरभ बढ़िया लिख रहे हैं तो घाटशिला से मिथिलेश्वर की रचनाएं बढ़िया आ रही हैं. प्रमोद कुमार झा, अनिता रश्मि, नरेश अग्रवाल, शिरोमणि महतो, नीरज नीर…सभी उल्लेखनीय नाम हैं.
प्रश्न : जिस संस्था के आयोजन में रांची पहुंचे हैं, वह अकादमी के गठन की मांग कर रही है. आपकी मातृभाषा भोजपुरी 8वीं अनुसूची में शामिल होने के लिए प्रयासरत है. बिहार में मैथिली पर इन दिनों जो सरकार का रूख है, वह उन्हें मैथिलों के आक्रोश का कारण हैं. भाषा के विकास, संवर्द्धन के लिए सरकारी सहयोग-संरक्षण क्या इतना आवश्यक है?
उत्तर : जब देश आजाद नहीं था, तब भी भाषा समृद्ध हो रही थी. हिंदी साहित्य सम्मेलन, जो सौ साल से अधिक समय से लेखकों के साथ खड़ी है, आजादी से पहले की ही है. आजादी से पहले ही नागरी प्रचारिणी सभा थी जो हिंदी भाषा और साहित्य, देवनागरी लिपि की प्रचार प्रसार करने वाली देश की अग्रणी संस्था है. उसकी स्थापना तब हुई थी जब ये सरकारें बनी भी नहीं थी. यह 1893 ई में स्थापित हुई. सब अपने स्तर पर सक्रिय थे. हाजीपुर में प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित साहित्यिक आयोजन कौमुदी महोत्सव आजादी के पहले से ही आयोजित हो रहा है. सरकार तो खुद आजादी के बाद पैदा हुई है. हम सरकार बनाते हैं इसलिए कि सरकार काम करे, हमारे ही पैसे से करे. काम की बड़ी श्रृंखला है. स्कूल खोलना, अस्पताल बनाना, यहां तक कि पशुओं के लिए अस्पताल बनाना, बीज पर शोध करना सब सरकार का काम है. जब गेहूं खत्म हो जाए, तब के लिए मडुआ, बाजरा, ज्वार को सुरक्षित रखना. जब जर्सी गाय खत्म हो जाए तो तब के लिए भुट्टी सी दिखने वाली देसी गायों को सुरक्षित रखना. ऐसे ही साहित्य की ओर ध्यान देना भी सरकार का काम है. साहित्य और भाषा की तरफ जनता का ध्यान जाए, लोगों को कम कीमत पर साहित्य मिले, किताबें छपाने में सहयोग हो, अनुवाद का काम हो, पुराने साहित्य संरक्षित रहें, यह भी सरकार का दायित्व है. सरकार का दायित्व है कि सबको मिले, सभी को पोषण मिले. भाषाएं कभी साहित्य के भरोसे नहीं रहतीं, लेकिन किताबें जब सहूलित से छपती हैं तो प्रतिभाएं प्रोत्साहित होती हैं.
प्रश्न : अशोक वाजपेयी का कहना है कि कविता हमारे मनुष्य होने का मार्मिक सत्यापन है, और इससे अधिक क्या कर सकती है कविता? आप क्या कहते हैं, कविता क्या और कितना कर सकती है? आज के परिपेक्ष्य में कविता से क्या उम्मीदें हैं?
उत्तर : कविता अस्तित्व को बदल देती है? आदमी को नया स्वभाव देती है. कविता से हमारा स्वभाव बदल जाता है. भीतर के लोक, बाहर के लोक को बदल देती है कविता. कविता प्रेम करना सिखाती है. महाभारत काल से अब तक प्रेम, क्रोध, वैर भाव, सबके लिए हम कविता की तरफ बढ़ते हैं. जैसे हम नदियों की तरफ जाते हैं, गंगा की तरफ जाते हैं, वैसे ही कविता की तरफ जाते हैं, कविता हमें पवित्र करती है.
प्रश्न : रचनाकारों की एक नई पौध सोशल मीडिया पर सक्रिय है. उनकी किताबें नहीं आई हैं, बड़े नामों वाली पत्रिकाओं में वे नहीं आ पाते. आप सोशल मीडिया पर नहीं हैं, वे आप जैसे वरिष्ठ लेखकों की नजर में कैसे आ पाएंगे?
उत्तर : बेशक सोशल मीडिया में मैं नहीं हूं, पत्र-पत्रिकाओं से ही पढ़ता हूं. जैसे पानी कई परतों से होकर ऊपर आती हैं, छनने की प्रक्रिया सतत चलती रहती है, वैसे ही इनके बारे में भी पता चलते रहता है. पैमाना तो नहीं होता है. लेकिन अगोचर पाठक वर्ग होता है जो अपना निर्णय लेता है. सोशल मीडिया में सक्रियता नहीं होने की वजह यह है कि मैं एकांत सृजन चाहता हूं. फिर अपनी सुविधा के अनुसार समागमन सुख भी लेता हूं.
प्रश्न : राजेंद्र यादव ने एक बार कहा था कि हरेक कविता में एक कहानी छिपी होती है, और हरेक कहानी में एक कविता छिपी होती है. आपका क्या कहना है?
उत्तर : यह बहस का मसला ही नहीं. कहानी हर पल, हर सांस के साथ बदलती है. परिवर्तन ही कहानी है. कहानी को व्यक्त करने का तरीका कविता है. चेखव की एक कहानी में कमरे की चीजों का वर्णन है. इसमें दीवार पर एक बंदूक के विषय में भी लिखा गया है. कहानी में अगर बंदूक दिखाई गई है तो कहीं न कहीं, उसका चलना लाजिमी है. इसके बरक्स कविता में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है.
प्रश्न : कई कविताएं बहुअर्थी होती हैं, तो कई एक निश्चित अर्थ को संप्रेषित करती हैं.
उत्तर : मिट्टी पृथ्वी का एक स्तर है. पत्थर, पानी, अग्नि भी इसके अंदर समाया हुआ है. बड़े कवि की कविता पढ़ने से पूरी पृथ्वी का बोध होता है. ऐसे कवि कम होते हैं. खड़ी बोली में निराला ऐसा ही एक नाम है. तुलसी, विद्यापति, कबीर अनेक अर्थ, अनेक स्तरों से भरी कविता के सर्जक हैं. अंग्रेजी में शेक्सपीयर की चर्चा इस क्रम में की जा सकती. इन स्तरों के कारण ही कुछ कवि बहुत बड़े होते हैं, कुछ कवि होते हैं, कवि होना भी बड़ी बात है.
प्रश्न : आपकी कविता समाज के वंचित तबकों, मजदूरों, पीड़ितों के लिए आवाज उठाती दिखती है. श्राद्ध जैसी कविताएं कुरीतियों पर सीधा प्रहार करती हैं. हिंदी के नए लेखकों में किन्हें यह दायित्व निभाते देखते हैं.
उत्तर : यह तो आदि कवि वाल्मिकी ने ही तय किया था कि पीड़ितों के साथ खड़ें होंगे. क्रौंच पक्षी का वध होने के बाद ही तमसा नदी के तट पर काव्याभिव्यक्ति हुई. मारने वाले को श्राप दिया. कविता हमेशा प्रेम के पक्ष में है. जो प्रेम के साथ नहीं, वह कवि नहीं. प्रेम उससे जिसका वध हो रहा. श्राप उसको, जो वध कर रहा. यह दायित्व सभी को निभाना है.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.