Lalit Surjan
आज वृहत्तर हैदराबाद नगरनिगम की एक सौ पचास सीटों के लिए चुनाव संपन्न हो रहे हैं. सामान्य स्थिति में महज एक स्थानीय निकाय के चुनाव में मतदाता, पार्टी, मीडिया, अध्येता सबकी रुचि सीमित ही होती. किंतु हैदराबाद ने तो राष्ट्रीय स्तर पर अभूतपूर्व खलबली पैदा कर दी है. इस कारण से कुछ पुराने सवाल उठकर फिर सामने आ गये हैं, तो कुछ नई चिंताएं भी उपजने लगी हैं.
कहना न होगा कि इस असाधारण परिदृश्य की बुनियाद में दुनिया की सबसे बड़ी कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी ही है. भाजपा भी अन्य दलों के समान चुनावों में हिस्सा ले और अपने पैर फैलाने के प्रयास करे तो वह स्वाभाविक है. हैदराबाद तेलंगाना की राजधानी है. देश के महत्वपूर्ण शहरों में एक है. फिर भी आम तौर पर पार्टी के प्रादेशिक नेतृत्व से ही इस चुनाव की बागडोर संभालने की अपेक्षा की जाती थी.
लेकिन जिस दम-खम के साथ भाजपा मैदान में उतरी है, वह आश्चर्यजनक है. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे, वहां तक तो गनीमत थी, लेकिन देश के गृहमंत्री अमित शाह भी दिनभर का रोड शो करेंगे, यह तो किसी ने भी नहीं सोचा होगा.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का भी एक दूसरे राज्य के म्युनिसिपल चुनाव में प्रचार के लिए जाना भी ठीक नहीं लगता. और तो और, भारत बायोटेक में विकसित की जा रही कोरोना वैक्सीन का निरीक्षण करने हैदराबाद आए प्रधानमंत्री के दौरे को भी चुनाव प्रचार से जोड़ देने की भी दबी-छुपी चर्चा होने लगी. जाहिर है कि भाजपा की निगाह हैदराबाद में अपना वर्चस्व कायम करने पर है.
हमें याद आता है कि जवाहरलाल नेहरू वर्ष 1923 में, तब की इलाहाबाद नगरपालिका के अध्यक्ष चुने गये थे. अगले साल वर्ष 1924 में सरदार वल्लभ भाई पटेल और देशबंधु चित्तरंजन दास भी क्रमश: अहमदाबाद नगरपालिका अध्यक्ष व कलकत्ता के मेयर निर्वाचित हुए थे. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस भी 1930 में कलकत्ता के महापौर बने. ऐसे और भी उदाहरण देखने मिलते हैं.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बर्लिन के मेयर विली ब्रांट जर्मनी के चांसलर और पोर्टो अलेग्रो के मेयर लुइस इग्नाशियो लूला द सिल्वा ब्राजील के राष्ट्रपति चुने गये. सबसे ताजा उदाहरण ब्रिटेन का है. जहां वर्तमान प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन कुछ साल पहले लंदन के मेयर थे. इन सबका उल्लेख इसलिए कि देश- विदेश में स्थानीय स्तर पर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत कर कितने ही लोग शिखर तक पहुंचे. जबकि हैदराबाद में जो हम देख रहे हैं, वह शीर्ष पर पहुंच कर स्थानीय स्तर पर लौटने की मिसाल है.
क्या इसे ‘वोकल फॉर लोकल’ मानना उचित होगा ? भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की दृष्टि में एक बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के उद्देश्य से यह निश्चित ही उसकी दीर्घकालीन रणनीति का हिस्सा है. लेकिन इसके औचित्य को लेकर हमें संशय है. यहां उस एकछत्रवादी सत्ता स्थापित करने की अकुलाहट दिखाई देती है, जहां क्षत्रप, सूबेदार, प्रादेशिक नेतृत्व हर समय केंद्र की कृपादृष्टि पर निर्भर हों. विश्व विख्यात कवि येट्स की प्रसिद्ध पंक्ति है- “थिंग्स फाल अपार्ट, द सेंटर कैन नॉट होल्ड.”’ भारत जैसे बहुलतावादी देश के संदर्भ में यह काव्य पंक्ति और भी मौजूं है. मालूम नहीं, इस शाश्वत सत्य को कितने लोग स्वीकार कर पाते हैं?
संकीर्ण धार्मिक आस्था पर आधारित एक केंद्रीय सत्ता स्थापित करने की चाहत हमारे राजनीतिक विमर्श में एक लंबे समय से मौजूद है. इसका संगठित रूप हिंदू महासभा के स्थापना काल से देखने मिलता है. जिसे जड़ और कठोर स्वरूप देने का काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने दिया और जो राजनीतिक इकाई के रूप में भारतीय जनता पार्टी बनकर सामने आयी. कई बार लिखा गया है कि डॉ. राम मनोहर लोहिया ने किन कारणों से गैर-कांग्रेसवाद की अवधारणा को जन्म दिया और किस तरह जनसंघ या भाजपा ने उसका लाभ उठाया.
जब वर्ष 1967 में अनेक राज्यों में संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारें बनीं तो उनमें दलबदलू कांग्रेसी ही सबसे आगे थे. अधिकतर सत्तालोलुप थे, लेकिन लोहियावादी समाजवादी भी कम नहीं थे. यहां तक कि साम्यवादियों को भी सिद्धांतहीन गठजोड़ का हिस्सा बनने से गुरेज न हुआ. यदि कोई सिद्धांत था भी तो वह नेहरूवादी नीतियों के विरोध का था. भाजपा ने पहले तो प्रत्यक्ष रूप से इनके इरादों को परवान चढ़ने में मदद की, फिर बहुत महीन तरीके से इन दलों को एक-एक कर हाशिए पर फेंक देने का काम किया.
मानना होगा कि भारतीय जनता पार्टी ने राजनीतिक माहौल को समझने और उसके अनुसार अपनी रणनीति तैयार करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. लेकिन सिर्फ भाजपा के माथे दोष मढ़ देने से बात नहीं बनेगी. आज जब असदुद्दीन ओवैसी की चौतरफा आलोचना हो रही है, तब याद रखना होगा कि वे पहले व्यक्ति या पार्टी प्रमुख नहीं हैं, जिन्होंने परदे के पीछे रहकर सांप्रदायिक ताकतों को मजबूत करने में जाने अनजाने योगदान किया है.
अभी हाल में संपन्न बिहार विधानसभा चुनावों के परिणाम ही ले लीजिए. राजद नेता शिवानंद तिवारी ने हार की जिम्मेदारी कांग्रेस पर थोपने में एक दिन का भी वक्त नहीं लगाया. सीपीआइ के मुखपत्र मुक्ति संघर्ष ने संपादकीय लेख में अपनी कमजोरियों पर विचार करने के बजाय कांग्रेस को आत्म मंथन करने की सलाह दे डाली. अगर आप ही सही थे, तो फिर कांग्रेस से गठबंधन करने की आवश्यकता क्या थी?
इसे कहते हैं, पर उपदेश कुशल बहुतेरे. इसके पहले उत्तर प्रदेश के चुनावों में पराजित होने के तुरंत बाद अखिलेश यादव ने कांग्रेस से किनारा कर लिया.
कांग्रेस में भी ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट की भूमिका को किस तरह देखा जाए? इतना ही नहीं, गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, शशि थरूर इत्यादि की तारीफ किन शब्दों में करें? कई बार समझ नहीं आता कि कांग्रेस को कमजोर करने में इनकी दिलचस्पी क्यों है!
यह आईने की तरह साफ है कि भाजपा यदि आगे बढ़ सकी है, तो यह उन लोगों का अपराध है, जो काम से नहीं, जुबान से धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं. इसमें उन कथित उदारवादी यानि कि लिबरल बुद्धिजीवियों की संदिग्ध भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. आज जो कांग्रेस नेतृत्व है, कुल मिलाकर उसे इतिहास से सबक और आम जनता को साथ लेकर नए सिरे से अपनी रणनीति बनाना होगी. अन्यथा राजनीति ने जो राह पकड़ ली है, उससे वापस लौटना आसान न होगा.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.