एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं –
‘यह तीसरा आदमी कौन है?’
मेरे देश की संसद मौन है
Faisal Anurag
मशहूर कवि धूमिल का यह सवाल अब कहीं ज्यादा कचोट रहा है. किसानों ने संसद का विशेष सत्र बुलाकर तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग की है. दूसरी ओर सरकार के रूख से जाहिर हो रहा है कि संसद को मौन रखने का उसने उपाय कर लिया है. केंद्र के मंत्रियों के बयानों से साफ लग रहा है कि सरकार किसानों की मांग नहीं मानने जा रही है. इंडियन एक्सप्रेस की 8 दिसंबर को प्रकाशित एक खबर के अनुसार, सरकार का रूख साफ है कि वह तीनों कानूनों में मामूली संशोधन के लिए तो सहमत है, लेकिन रद्द नहीं करेगी. तीनों कृषि कानूनों को अडानी और अंबानी कानून कहते हुए किसानों ने भी साफ कर दिया है कि बीच का कोई रास्ता नहीं है. 9 दिसंबर की बैठक के पहले यह पृष्ठभूमि तैयार हो गयी है. जाहिर है 9 दिसंबर की वार्ता के भी बेनतीजा रहने की संभावना ज्यादा है. दूसरी ओर सरकार किसानों से निपटने का मन भी बना रही है. सिंधु बार्डर पर जिस तरह चलंतू जैमर लगाये गये हैं, उससे तो यही जाहिर हो रहा है.
विपक्ष और सत्त पक्ष के बीच भी टकराव बढ़ता ही जा रहा है. केंद्र के मंत्री कृषि कानूनों के लिए विपक्ष को जिम्मेदार बता रहे हैं. केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने तो यहां तक कह दिया कि कांग्रेस के दिखाये रास्ते पर ही मोदी सरकार अमल कर रही है. दरअसल रविशंकर प्रसाद ने तो यूपीए सरकार का हवाला दिया. लेकिन अपनी सरकार के समय नीति आयोग की उन रिपोर्टों की चर्चा तक नहीं किया, जिसमें मंडी को खत्म किये जाने की बात कही गयी है. तीनों कानूनों को नीति आयोग के दस्तावेज को ही आधार बनाकर तैयार किया गया है. किसान नेता भूमि अधिग्रहण विधेयक का हवाला दे रहे हैं, जो भारी दबाव के बाद स्वत: ही मृत कर दिया गया. केंद्र सरकार कानूनों को लेकर जिस तरह का रूख दिखा रही है, उससे उन आरोपों को बल ही मिलता है. जिसमें देशी-विदेशी कॉरपारेट के लिए खेती किसानी को बलि चढ़ाने की बात की जा रही है.
पिछले छह सालों से विभिन्न समूहों के असंतोष को किसानों से बड़े फलक पर अभिव्यक्त किया है. इस आंदोलन ने अर्थिक सुधारों के नाम पर कॉरपारेटपरस्ती पर भी सवाल उठाये हैं. डंकल के जमाने से दुनिया भर के किसानों में असंतोष है. डंकल प्रस्ताव जो आगे चल कर गैट में बदला निजीकरण की वकालत करता है. खास कर कृषि के कॉरपारेटीकरण का भी रास्ता खोलता है. भारत जैसे देशों में किसानों और खेती का सवाल एक बड़ा सांस्कृतिक सवाल है. सरकार इस संदर्भ को नजरअंदाज कर रही है. भारत में कृषि संस्कृति के समावेशी प्रकृति से जुड़ा हुआ है.
लॉकडाउन काल में केंद्र सरकार ने जिस तरह आर्थिक सुधारों को करना शुरू किया, उससे देश के हर मेहनतकश तबके में रोष है. किसान आंदोलन में संगठित क्षेत्र के मजदूरों की भागीदारी और समर्थन बताता है कि भारत एक ऐसे दौर में प्रवेश कर रहा है, जहां सरकार केवल पुलिस दमन के सहारे सवालों को हाशिये पर नहीं डाल सकती.
किसान आंदोलन को कवर कर रहे कृष्णकांत के अनुसार, सरकार चाहती है कि खेती का बाजार पूंजीपतियों के हाथ में हो. वही पूंजीपति, जिनमें से कई देश के बैंक लूट कर विदेश भाग गये. बीजेपी सरकार सपना देख रही है कि भगोड़े और लुटेरे पूंजीपति मिलकर देश चलायेंगे. इसी सपने के तहत हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे और राष्ट्रीय कंपनियां देश के चंद अमीरों को बेची जा रही हैं. किसान आज जो मांग रहे हैं, उसमें नया कुछ नहीं है. ये मांग बरसों पुरानी है.
नया सिर्फ इतना है कि मौजूदा सरकार ने नये कानून बनाकर किसानों की मुसीबत और बढ़ाने का इंतजाम कर दिया है. इसने फसलों की उपज बेचने की सुलभ व्यवस्था करने, फसलों के उचित मूल्य दिलवाने, खेती से घाटे को कम करने की जगह उसे पूंजीपतियों के हाथ बेचने का कानून बना डाला.
किसान संगठन भी इस तथ्य को समझ रहे हैं कि वार्ता के मकड़जाल में ज्यादा देर तक फंसे रहना आत्मघाती साबित होगा. सरकार चाहती है कि किसान अपने घरों को वापस जायें और बातचीत जारी रखें. किसानों को जिस तरह देशभर में समर्थन मिल रहा है, उससे आंदोलन के और तेज किये जाने की संभावना प्रबल है.
विपक्षी दलों ने भी किसानों के सवाल को लेकर केंद्र सरकार को घेरा है. दुनिया के अनेक देशों में किसानों के समर्थन में प्रदर्शन हुए हैं. अमेरिका से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक हुए इन प्रदर्शन का असर उन देशों में भी राजनीतिक दबाव बना रहा है.
कनाडा के प्रधानमंत्री के बयान के बाद मोदी सरकार ने कड़ी टिप्प्णी की है. लेकिन दुनियाभर में किसानों के आंदोलन की जिस तरह चर्चा हो रही है, वह अपने आप में एक बड़ा दबाव मोदी सरकार पर है. आर्थिक सुधारों के पैरोकारों ने भी दबाव बनाया है. अनेक अखबारों में लेख छपे हैं. जिसमें सुधारों से पीछे नहीं हटने की बात कही जा रही है. इस समय कॉरपारेट बनाम किसान का सवाल गंभीर बन चुका है. सरकार के इरादों को किसानों ने खारिज कर दिया है. केंद्र को कॉरपारेट की नाराजगी भी सता रही है.