Surjeet Singh
बहुत शोर है. कुछ बातें हमें रोज बतायी जा रही है, टीवी पर, अखबारों में, प्रधानमंत्री के भाषणों में, वित्तमंत्री की बजट में, हर स्तर पर हर जगह. भारत का जीडीपी ग्रोथ 7.2 प्रतिशत है. हम दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था हैं. हम दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए हैं. देश की इकोनॉमी जल्द ही पांच ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच जायेगी. हर तरफ गर्व का माहौल बनाया-दिखाया जा रहा है. अभी देश में चुनाव है. इस चुनावी शोर के बीच भारत सरकार की सांख्यिकी मंत्रालय ने चुपके से एक आंकड़ा जारी कर दिया है. उपभोक्ता खर्च-2022-23 के आंकड़े. मंत्रालय ने वर्ष 2017 में भी ऐसे ही आंकड़े जारी किए थे. जिसे भारत सरकार ने खारिज कर दिया था. इससे पहले वर्ष 2004 और 2011 में आंकड़े आए थे. ताजा आंकड़ा 11 साल बाद आया है. आंकड़ा एक लाख शहरी और 1.05 लाख ग्रामीण लोगों यानी कुल 2.05 लाख लोगों से बात करके तैयार किया गया है. इस आंकड़े से पता चलता है कि पिछले 11 सालों में हमें अपने लिए जरुरी संसाधन जुटाने, खाने-पीने के खर्च में डेढ़ सौ गुणा की बढ़ोतरी हो गई है. आय कितनी बढ़ी है, यह तो आप जानते ही हैं. इसके अलावा यह तथ्य भी सामने आया है कि गांव व शहर के अमीर और गरीब के बीच खर्च में अंतर का औसत क्रमशः आठ व दस प्रतिशत है. सिर्फ तीन राज्य ऐसे हैं, जहां के लोग राष्ट्रीय औसत या उससे अधिक खर्च कर पा रहे हैं. देश के 95 प्रतिशत लोग वर्ष 2004 में जितना खर्च कर पाते थे, आज भी उतना ही खर्च कर पा रहे हैं. यही कारण है कि बाजार में डिमांड नहीं है. यह हाल तब है जब बीते 10 सालों में सरकार ने गांवों में बहुत पैसे बांटे. सीधे एकाउंट में पैसे डाले गए. इन सबके बाद भी लोगों की खपत खर्च में बढ़ोतरी नहीं हुई. क्यों 95 प्रतिशत लोगों की तरक्की नहीं हुई. ऐसे में यह सवाल उठता है कि हमारी मेहनत से जो जीडीपी बढ़ी, तीन ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बने, उससे देश के ज्यादातर लोगों की गरीबी क्यों नहीं कम हुई. आखिर आपकी मेहनत से निकली तरक्की को कौन चुरा ले गया.
सबसे बड़ा संकट
जीडीपी भले ही तीन गुणी हो गई. लेकिन खपत खर्च में बढ़ोतरी बहुत ही मामुली है. वर्ष 2004 के उपभोग खर्च, कुल जीडीपी का 60 प्रतिशत था. अब 2023 में 58 प्रतिशत पर आ गया. यह एक बड़ा संकट है. लोगों का खर्च नहीं बढ़ रहा. बाजार में मांग नहीं. लोगों की खरीद करने की क्षमता कम होती जा रही है. ऐसे हालात में फिर उद्योग-धंधों का क्या होगा. नौकरियां कैसे बढ़ेंगी. ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि बाजार में मांग नहीं रहने के बाद भी किसी भी सामान या उत्पाद की कीमत बढ़ कैसे रही है. क्या कंपनियां मांग नहीं बढ़ने की वजह से महंगाई बढ़ा रही है. अगर ऐसा है तो आगे भी महंगाई के कारण मांग कमजोर होगा और उद्योग संकट में आएंगे.
प्रति व्यक्ति उपभोग खर्च कितना बढ़ा
2011-12 2022-23 बढ़त
गांव 1430 रु 3773 रु 164%
शहर 2630 रु 6459 रु 146%
खर्च के मामले में राष्ट्रीय औसत में आप कहां
देश में प्रति व्यक्ति का खर्च का राष्ट्रीय औसत खर्च समझना जरूरी है. गांवों में खर्च का राष्ट्रीय औसत 3,773 रुपया है, जबकि शहर में 6,451 रुपया. देश के तीन राज्यों सिक्किम, दिल्ली व महाराष्ट्र में खर्च राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है, जबकि असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में काफी कम. यानी जिस राज्य की आबादी शहरों पर जितना निर्भर है, वहां स्थिति ठीक है. लेकिन जहां की बड़ी आबादी गांव पर निर्भर है, वहां स्थिति खराब है.
गांव शहर
सिक्किम 7,731 12,105
दिल्ली 6,576 8,217
महाराष्ट्र 4,010 6.657
असम 3,432 6,136
बिहार 3,384 4,768
प. बंगाल 3,239 5,267
उत्तर प्रदेश 3,191 5,040
ओड़िसा 2,950 5,187
झारखंड 2,763 4,931
छत्तीसगढ़ 2,466 4,483
हालात बहुत खराब
आंकड़े से दो तथ्य सामने आए हैं. पहली यह कि गांव के लोग जो कुल खर्च करते हैं, उसका 46 प्रतिशत हिस्सा खाने पर खर्च होता है, जबकि शहर में यह 39 प्रतिशत है. मतलब यह कि गांव के लोग खाने पीने की बढ़ती महंगाई से त्रस्त हैं. उनके कुल खर्च का ज्यादातर हिस्सा पेट भरने में ही खर्च हो जाता है. आंकड़े से पता चला है कि खाने की चीजों पर लोगों को सबसे अधिक खर्च करना पड़ रहा है. उनकी सारी कमाई दूध, अनाज, सब्जियों व प्रोसेस्ड फुड व पेयजल पदार्थ को खरीदने में खत्म हो जा रहा है.
कहां कितना प्रतिशत खर्च करते हैं लोग
उत्पाद गांव शहर
प्रोसेस्ड फुड व पेय पदार्थ 9.62 10.64
दूध व संबंधित उत्पाद 8.33 7.22
अनाज 4.91 4.36
सब्जियां 5.38 3.8
परिवहन 7.55 8.59
इलाज 7.13 5.91
शिक्षा 3.3 5.78
सिर्फ पांच प्रतिशत लोगों की स्थिति अच्छी
गांवों में सिर्फ पांच प्रतिशत लोग ज्यादा खर्च करते हैं. 10,501 रुपये है. ये पांच प्रतिशत लोग गांव के अमीर लोग हैं. इन्हीं गांवों में जो गरीब हैं, उनका मासिक खर्च सिर्फ 1,373 रुपया है. यानी गांव के अमीर की खर्च गांव के सबसे गरीब की खर्च से आठ गुणा ज्यादा है. विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट भी यही कहती है कि खेती से बाहर निकाल कर दूसरे कामों पर निर्भरता बढ़ाने के मामले में भारत एशिया में सबसे पीछे है. इस मामले में हम नेपाल, बांग्लादेश, भुटान जैसे देशों से भी पीछे हैं. यह अलग बात है कि हम अपनी ग्रोथ को लेकर गर्व करते रहते हैं. शहर की बात करें, तो अमीरों का मासिक प्रति व्यक्ति खर्च 20,520 रुपया है, जबकि गरीबों का 2,001 रुपये. यहां अंतर 10 गुणा है. यह भारत की आर्थिक असामानता बहुत तेजी से बढ़ा है. शहर व गांव की तूलना करें तो गांव का अमीर का खर्च शहर के अमीर से आधी है, जबकि गांव के गरीब का खर्च शहर के गरीब के खर्च से आधी से ज्यादा है.
खर्च का अंतर
गांव शहर
उपर के पांच प्रतिशत लोग 10,501रु 20,824रु
बीच के लोग (मध्यम) 6,638रु 12,399रु
नीचे के पांच प्रतिशत लोग 1,373रु 2,001रु
दुनिया के पैमाने पर हम बहुत पीछे
विश्व बैंक ने लोगों के खर्च का जो पैमाना तय किया है, उसके मुताबिक इतने रुपये खर्च करने की स्थिति को आदर्श स्थिति माना जाता है. आप समझ सकते हैं, दुनिया के दूसरे देशों के सामने हमारी स्थिति क्या है. भलें कि हम गर्व कर लें कि हम दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए हैं. जल्द ही तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएंगे. पांच ट्रिलियन वाली इकोनॉमी. लेकिन हमारे हालात बहुत खराब हैं. गांव हो या शहर, सिर्फ पांच प्रतिशत लोग ही उतना औसत खर्च कर पा रहे हैं, जितनी की बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश के गरीब खर्च करते हैं.
प्रति व्यक्ति औसत मासिक का खर्च
गरीब 7,470 रु – 21,015 रु
मिडिल क्लास 21,016 रु- 57,344 रु
उच्च आय वाले 57,344 रु से उपर
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