Dr. Pramod Pathak
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए. नतीजे अनुमान के अनुरूप ही रहे. हालांकि कुछ लोगों को इस तरह के नतीजों का अनुमान नहीं था. खैर जो परिणाम आये उसके विश्लेषण से काफी कुछ सीखा और समझा जा सकता है. बहुत से चुनाव विशेषज्ञ काम पर लग भी गए हैं. परिणाम का सही निष्कर्ष निकालने के लिए कम और खुद को सही साबित करने के लिए ज्यादा. लेकिन सच्ची बात तो यह है कि हर चुनाव की तरह इस बार भी जनता ही सही है. दक्षिण भारत के इस समृद्ध राज्य के परिणाम पर बहस चलने लगी है. भविष्य के आकलन के लिए. दरअसल इस चुनाव को महज एक राज्य का चुनाव नहीं समझ कर एक बड़े फलक पर देखने की कोशिश की जा रही है. एक साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के नतीजों के संकेत के रूप में. क्या यह चुनाव कुछ संकेत दे रहा है. क्या इसका कुछ प्रभाव पड़ेगा आने वाले लोकसभा चुनाव पर. इत्यादि इत्यादि. वैसे यह थोड़ा जल्दबाजी है.
अभी तो इसी वर्ष देश के कुछ अन्य राज्यों के भी विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. उनके परिणाम भी कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं होंगे. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कर्नाटक के चुनाव के परिणाम कुछ संदेश नहीं दे रहे. यह चुनाव बहुत कुछ कह रहे हैं. सबसे बड़ी बात जो इस चुनाव के नतीजों में दिखाई पड़ रही है, वह है देश के लोकतंत्र का हित. सीधे सपाट शब्दों में कहा जाए तो फिलहाल कांग्रेस मुक्त भारत की संभावना नहीं दिखती. यानी किसी एक पार्टी के शासन की कल्पना बेमानी है. हालांकि शोर मचा कर इस बात की पुरजोर कोशिश जरूर की जा रही है, किंतु उसमें कुछ खास दम नहीं है. तो इस लिहाज से देश का लोकतंत्र मजबूत ही बना रहेगा.
वैसे कर्नाटक के चुनाव से और भी बहुत कुछ संकेत मिल रहे हैं. बहुत कुछ साबित भी कर रहे हैं, यह चुनाव परिणाम. पहले संकेतों की बात. तो सबसे अर्थपूर्ण संकेत तो यही है कि बेंगलुरु से दिल्ली दूर जरूर है, लेकिन ढंग से कोशिश की जाए तो पहुंचा जा सकता है. और यह संकेत काफी मायने रखता है. एक दूसरा संकेत यह भी है कि कांग्रेस को शामिल किए बिना कारगर विपक्ष बनाना संभव नहीं और भाजपा को चुनौती देने के लिए कांग्रेस का साथ जरूरी है. यदि कुछ लोग इस तरह का भ्रम पाल रहे हैं कि कांग्रेस को किनारे कर भाजपा को रोका जा सकता है, तो उनकी धारणा सही नहीं है. ऐसे लोग भाजपा का ही काम कर रहे हैं. जाने या अनजाने. तीसरा संकेत भी काफी उपयोगी है. वह संकेत है कि जनता सोचती समझती भी है. सिर्फ भावनाओं पर नहीं बल्कि वह तार्किक आधार पर भी मतदान करती है. यह संकेत विपक्षी एकता का सूत्रधार हो सकता है. वैचारिक मतभेद के बावजूद पार्टियां एकजुट हो सकती हैं. और ऐसा पहले भी हुआ है.
भले ही आजकल राजनीति में मतभेद और मनभेद में फर्क नहीं किया जा रहा है. एक चौथा भी संकेत है. यह संकेत भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए महत्वपूर्ण है. भाजपा के लिए यह कि अत्याधिक आत्मविश्वास घातक हो सकता है और करिश्माई नेतृत्व की सीमाएं हैं. व्यक्ति का करिश्मा स्थाई नहीं होता, बल्कि घटता बढ़ता रहता है. रही बात कांग्रेस की तो उसके लिए संकेत यह है कि बहुत जल्दबाजी में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए. यानी अभी लंबी दूरी तय करनी है. एक और भी बात गौर करने लायक है, इन चुनाव परिणामों से. राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ रही है. कांग्रेस के लिए यह एक बड़ी पूंजी है.इस चुनाव परिणाम से यह भी समझना चाहिए कि गैर मुद्दों की अपेक्षा मुद्दों पर बात करना ज्यादा श्रेयकर होता है और गैर मुद्दों के शोर में मुद्दे बेअसर नहीं हुआ करते.
चुनाव में जीत हार के पीछे कई कारण होते हैं, लेकिन अक्सर जीतने वाले तथ्यपरक विवेचना नहीं कर पाते और हारने वाले ईमानदार विश्लेषण. दरअसल दोनों ही खुद को सही ठहराना चाहते हैं. हो सकता है कुछ लोग कर्नाटक चुनाव को इसलिए ज्यादा महत्व ना दें कि यह सम्पूर्ण भारत नहीं है. लेकिन आप इससे इनकार नहीं कर सकते की कर्नाटक में भी भारतीय ही रहते हैं. और भारतीय की तरह ही वोट करते हैं. अर्थात भारत के व्यापक संस्कृति के गुण वहां भी विद्यमान हैं जो मतदान भी प्रभावित करते हैं.
यदि गंभीरता से विवेचना की जाए तो कर्नाटक के चुनाव परिणाम बहुत कुछ साबित कर रहे हैं. कुछ नया नहीं बल्कि वो स्थापित सत्य जो कई बार लोग सुविधानुसार भूल जाते हैं. सबसे बड़ा सत्य तो लोकतंत्र के बारे में है जो अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था. आप कुछ लोगों को हमेशा मूर्ख बना सकते, सारे लोगों को कुछ समय तक, लेकिन सारे लोगों को हमेशा मूर्ख नहीं बना सकते. तो यह तो बड़ा स्पष्ट दिखा कर्नाटक के चुनाव परिणाम में. अपनी एक कहानी के जरिए मिस्र के विद्वान लेखक ईसप ने 5000 साल पहले भी ऐसा ही कुछ कहा था कि एक ही तरकीब बार-बार काम नहीं आती. विदुर ने भी महाभारत में कहा था कि व्यक्ति की तरह नीतियों की भी आयु होती है. यानी कुछ भी स्थाई नहीं होता. एक समय के बाद उनको बदलना जरूरी होता है. चीजें बदलती हैं और इसे स्वीकार करना चाहिए. कर्नाटक की जनता ने तो अपना काम कर दिया. इसीलिए तो जनता जनार्दन है. रही बात बजरंगबली की तो वे तो कुमति निवार सुमति के संगी हैं ही.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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