Faisal Anurag
औपनिवेशिक काल के अवशेष राजद्रोह कानून की समीक्षा के प्रस्ताव ने भारत के न्यायिक इतिहास में एक नये दौर के आगाज का संकेत है. फादर स्टेन स्वामी की संस्थानिक हत्या के बाद पूरे देश के कानूनविदों ने गंभीर सवाल उठाये हैं. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश एनवी रम्मना ने तीन सदस्यीय पीठ की अगुवाई करते हुए राजद्रोह के कानून की समीक्षा का सवाल उठाया है. सात सालों से यह सवाल उठता रहा है कि देश में राजनैतिक तौर पर असहमति रखने वालों के खिलाफ राजद्रोह कानून का इस्तेमाल आम हो गया है. राजद्रोह को ही देशद्रोह बता कर इस देश में खास किस्म की मानसिकता भी तैयार की गयी है.
2015 से तो इस देश में जितने मामले और गिरफ्तारियां इस कानून के तहत हुई हैं, वे अपने-आप में एक रिकार्ड हैं. 2015 में 30 मामले दर्ज किये गये थे, जिसके आधार पर 73 लोगों को गिरफ्तार किया गया था. 2017 में तो 51 मामले दर्ज कर 228 लोगों को जेलों में बंद किया गया . 2015 से 2019 तक राजद्रोह के कुल 269 मामले दर्ज हुए और 501 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया. भीमा कोरेगांव के मामले में तो देश के जानेमाने 16 लोगों के खिलाफ राजद्रोह के मामले दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार किया गया है. ये लोग न केवल देश में, बल्कि सारी दुनिया में अपने लेखन, आदिवासियों और दलितों के संघर्षों की पैरोकारी और मानवाधिकार हनन के सवालों उठाते रहे हैं. सेकुलर भारत को लेकर इनकी प्रतिबद्धता जगजाहिर है. इनमें ही फादर स्टेन भी थे, जिन्हें 83 साल की उम्र में गिरफ्तार किया गया. उनकी मृत्यु ने अनेक सवाल उठाये हैं.
सीएए विरोधी आंदोलन के कारण नताशा नरवाल और देवांगना को जमानत देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने भी असहमति और राजद्रोह के फर्क को मिटा देने का सवाल उठाया था. असम में किसान नेता तथा नवनिर्वाचित विधायक अखिल गोगोई को जमानत देते हुए भी असम की अदालत ने इसी तरह की बातें की थीं. इन तीनों पर भी राजद्रोह के मामले दर्ज किये गये थे, क्योंकि नागरिकता कानून के खिलाफ उनकी आवाज की बुलंदी सरकार सह नहीं सकी. नागरिकता विरोधी आंदोलन में शामिल रहे एक दर्जन से ज्यादा लोग तिहाड़ में राजद्रोह के आरोप में ही बंदी हैं. इन तमाम मामलों के बाद यह सवाल उठने लगा था कि राजद्रोह कानून का बेजा इस्तेमाल नरेंद्र मोदी सरकार कर रही है. इस कानून को सरकार की नीतियों के खिलाफ संघर्ष के दमन और नेताओं को प्रताड़ित करने का हथियार बना दिया गया है. अब सुप्रीम कोर्ट ही कह रहा है कि अंग्रेजों ने इस कानून को आजादी की लड़ाई का दमन करने का हथियार बना दिया था. जब अंग्रेजकालीन अनेक कानून बदले जा रहे हैं, तो इसे क्यों नहीं खत्म किया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह के प्रावधान के ‘भारी दुरुपयोग’ पर चिंता जताते हुए शीर्ष अदालत द्वारा बहुत पहले ही दरकिनार कर दिये गये सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66ए के ‘चिंताजनक’ दुरुपयोग का उल्लेख भी किया और कहा कि ‘इसकी तुलना एक ऐसे बढ़ई से की जा सकती है, जिससे एक लकड़ी काटने को कहा गया हो और उसने पूरा जंगल काट दिया हो.’ मुख्य न्यायाधीश ने कहा : एक गुट के लोग दूसरे समूह के लोगों को फंसाने के लिए इस प्रकार के दंडात्मक प्रावधानों का सहारा ले सकते हैं. उन्होंने कहा कि यदि कोई विशेष पार्टी या लोग (विरोध में उठने वाली) आवाज नहीं सुनना चाहते हैं, तो वे इस कानून का इस्तेमाल दूसरों को फंसाने के लिए करेंगे. पीठ ने पिछले 75 वर्ष से राजद्रोह कानून को कानून की किताब में बरकरार रखने पर आश्चर्य व्यक्त किया और कहा, ‘हमें नहीं पता कि सरकार निर्णय क्यों नहीं ले रही है, जबकि आपकी सरकार (अन्य) पुराने कानून समाप्त कर रही है.’
संविधान सभा ने भी राजद्रोह प्रावधान खत्म करने पर विचार किया था, लेकिन इस खत्म नहीं किया गया. 1897 में महारानी बनाम बाल गंगाधर तिलक के मामले में इसे चुनौती दी गयी थी. आजाद भारत में 1962 के केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार के प्रसिद्ध मुकदमे को भी याद किया जा सकता है, जिसमें राजद्रोह के प्रावधान को चुनौती दी गयी थी. कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी बनाम माहाराष्ट्र सरकार का मुकदमा भी चर्चित है, जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्टून बनाने के लिए असीम त्रिवेदी को राजद्रोह प्रावधान के तहत गिरफ्तार किया गया.
2012 में तमिलनाडु के कुडनकुलम में परमाणु संयंत्र का विरोध करने पर 9000 लोगों पर और 2017 में झारखंड में पत्थलगड़ी आंदोलन से जुड़े करीब 10 हजार आदिवासियों के खिलाफ राजद्रोह के प्रावधान का इस्तेमाल किया गया. झारखंड में रघुवर दास की सरकार ने एक दर्जन लेखकों, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ भी इस प्रावधान का इस्तेमाल किया. अरुंधती रॉय, बिनायक सेन, हार्दिक पटेल, दिशा रवि, सुधा भारद्वाज, कन्हैया कुमार और मीडिया लेखक उमर खालिद, फिल्म से जुड़े असीम त्रिवेदी, मृणाल पांडे, राजदीप सरदेसाई, आयशा सुल्ताना आदि ऐसी कुछ प्रमुख हस्तियां हैं, जिनके खिलाफ भी इस प्रावधान का इस्तेमाल हुआ.
सुप्रीम न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने ‘असहमति’ को लोकतंत्र का ‘सेफ्टी वॉल्व’ करार देते हुए शनिवार को कहा था असहमति को एक सिरे से राष्ट्र-विरोधी और लोकतंत्र-विरोधी बता देना संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण एवं विचार-विमर्श करने वाले लोकतंत्र को बढ़ावा देने के प्रति देश की प्रतिबद्धता के मूल विचार पर चोट करता है. जस्टिस चंद्रचूड़ ने यहां एक व्याख्यान देते हुए यह भी कहा कि असहमति पर अंकुश लगाने के लिए सरकारी तंत्र का इस्तेमाल डर की भावना पैदा करता है जो कानून के शासन का उल्लंघन है. उच्चतम न्यायलय लंबे समय बाद लोकतंत्र, अभिव्यक्ति और असममति के संवैधानिक अधिकार और बेहतर इंसाफ के पक्ष में उठ खड़ा दिख रहा है.