Kavita Vikash
“नहीं.. तुम मेरे फैसले के विरोध में नहीं जा सकते. अभी इस काबिल नहीं हुए हो कि बड़े – बड़े निर्णय लेने लगो.” पापा का सख्त ,सपाट उत्तर सुनकर बड़ी निराशा हुई. बात दरअसल यह थी कि मैं दसवीं के बाद साइंस स्ट्रीम छोड़ कर आर्ट लेना चाहता था. ड्राइंग और पेंटिंग में मेरी रूचि थी. मैंने पापा के समक्ष एक और दलील दी, “आज कल हर स्ट्रीम में सम्भावनाएं हैं. अपने शौक को पूरा करने का अभी ही तो मौका है.” पर पापा कहां सुनने वाले थे!
विद्यालय के प्रत्येक वार्षिक महोत्सव में मेरे नाम कई मेडल और पुरस्कार होते थे ,पर इसकी खुशियां बांटने के लिए घर में कोई नहीं. पापा पेंटिंग को एक तुच्छ विषय मानते थे. मेरा बड़ा भाई अमित पढ़ाई में बहुत अच्छा था और मैं बिलकुल साधारण. अमित भैया पापा की आंखों का तारा थे. वे अक्सर उनका उदाहरण देते, “अमित ने इस बार भी अपनी कक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया है. इसके कारण समाज में लोग मुझे इज्जत की नज़र से देखते हैं.” यह वाक्य मैं पापा की जुबां से तब से सुनता आ रहा हूं जब से मैंने नर्सरी में दाखिला लिया था.
अमित मुझसे पांच साल बड़ा था. मुझे बेहद प्यार करता था. कभी- कभी पापा मेरे लिए ड्राइंग की कॉपी लाने में आना- कानी करते तो वह अपनी ज़िद से मंगवा देता था. गणित मुझे बहुत उबाऊ विषय लगता. कक्षा में जब गणित की पढ़ाई होती रहती ,मैं चुपचाप अंतिम पेज में ड्राइंग बनाता रहता. एक बार तो मैंने सर की हुबहू सूरत बना दी. यह बात तभी से हवा की तरह फैल गयी कि आनंद बहुत अच्छा चित्रकार है. ऐसा नहीं था कि मम्मी को मेरे इस हुनर का पता नहीं था पर दादा – परदादा के समय से ही मेरे घर में केवल पढ़ाई को ही तवज्जो दी जाती रही है.
कला और संगीत तो चंद समय के लिए बोरियत से उबारने के साधन रहे थे. इन विषयों में कोई उपलब्धि पाना पापा के लिए कोई मायने नहीं रखता था. मम्मी दबी जबान में मेरी तरफदारी करतीं पर इसमें भविष्य बनाना एक जोखिम भरा निर्णय समझती थीं. अक्सर मां कहतीं, “बेटा ,एक पेंटर बनकर तुम कैसे जीवन चला पाओगे? इसमें कोई निश्चित आय नहीं है.” मैं बड़े पेशोपेश में उनके इस तर्क के सामने निरुत्तर हो जाता. आखिर मां गलत भी नहीं थीं. दसवीं के बाद पापा के थोपे हुए आदेश के कारण मुझे पसंदीदा विषय छोड़ कर गणित और विज्ञान लेना पड़ा. ऐसा नहीं था कि मैं साइंस में कच्चा था ,बस पसंद की बात थी. बारहवीं में कड़ी मेहनत की. अमित भैया की तरह टॉप तो नहीं किया पर उम्मीद से ज्यादा अच्छे परिणाम आये. इस दौरान मेरे रंग,पेंसिल ,कलर ,ब्रश आदि एक बक्से में बंद हो गए थे. पापा ने सख्त हिदायत दे रखी थी कि बारहवीं तक इन्हें छूना नहीं है.
बारहवीं के बाद मेरा दाखिला बंगलोर के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में हुआ. हॉस्टल जाते वक़्त मां ने मेरे कपड़ों के बक्से में चुपचाप मेरा पेंटिंग किट रख दिया . बंगलौर की मोहक वादियों में मेरे अंदर का छुपा चित्रकार फिर जाग उठा. एक बार फिर से हाथों ने ब्रश और पेंट थाम लिया. देखते – देखते मेरा कमरा जिसमे मेरे साथ एक और सहपाठी रहता था, हॉस्टल का सबसे सुन्दर कमरा हो गया. दीवारों पर लगे नयनाभिराम चित्र और पोस्टर सभी को बेहद भाते थे. पहला और दूसरा साल समाप्त हो गया. छुट्टियों में घर जाता तो पापा काफी खुश नजर आते. कॉलेज से फीड बैक जाता कि मैं क्लास के सर्वश्रेष्ठ छात्रों में से एक हूं. तीसरे साल प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाना था जिसके कारण गर्मी की छुट्टियों में मुझे हॉस्टल में ही रहना था. रूम पार्टनर की कमी खलती थी. दोपहर में बहुत बोरियत होती. इन्ही दिनों हॉस्टल में लिपाई – पुताई चल रहा था. मेरा कमरा पहले तल्ले पर था. डिस्टेंपर के कारण कॉरिडोर बड़ा सुन्दर लगता था. एक दिन दोपहर में मैंने अपने कमरे के बगल वाली दीवार पर एक सुन्दर चित्रकारी कर डाली. डर रहा था कि हॉस्टल इंचार्ज से इज़ाज़त लिए बिना ऐसा किया हूं, कहीं डांट न पड़े. पर तीन दिनों तक वे राउंड पर नहीं आए. इस बीच मैंने पूरे कॉरिडोर में चित्रकारी कर दी.
चौथे दिन रात में इंचार्ज सर राउंड पर आए. उस समय रात के नौ बजे थे. लड़के तो कम ही थे और सभी अपने-अपने कमरों में थे. कॉरिडोर की मद्धम रौशनी में दीवारों पर के चमकते हुए रंगों में उकेरे पेड़ – पौधे ,देवता ,नदी ,पहाड़ – सूर्य मानो जीवित हो उठे. धीमी रोशनी में नहाते गहरे चमकीले रंगों में सजी दीवारों पर इंचार्ज सर मंत्रमुग्ध हो गए थे. दूसरे दिन मुझे कॉलेज बुलाया गया. दीवारों पर रंग भरते फर्स्ट फ्लोर के सफाई कर्मचारियों ने देखा था, जिन्होंने इस छुपे आर्टिस्ट की जानकारी सर को दे दी थी. मुझे सर ने सख्त निर्देश दिया कि बाकी के दो तल्लों की दीवारों को भी ऐसी ही चित्रकारी से भर दो ताकि देखने में सभी एक से लगें. डांट की आशंका अब नहीं थी. चित्रकारी तो मेरा जुनून था. चार दिनों के अंदर वे दो तल्ले भी खूबसूरत बन गए. गर्मी की छुट्टियां ख़त्म हो गयीं. लड़के वापस आ गए थे. हॉस्टल के नए रूप ने सबका मन मोह लिया और गुमसुम सा रहने वाला मैं अचानक उनका हीरो बन गया.
कॉलेज के वार्षिकोत्सव की तैयारी आरम्भ हो गयी. माता – पिता को आमंत्रण भेजा गया था. पेरेंट्स की उपस्थिति में वर्ष भर की विशेष उपलब्धियों के लिए योग्य छात्रों को पुरस्कार वितरण किया जाता था. टाई – कोट के विशेष ड्रेस – कोड में मैं पापा – मम्मी के बीच में बैठा कार्यक्रम का आनंद ले रहा था. पापा न चाहते हुए भी बोल उठे , “स्कूल या कॉलेज का शायद ही ऐसा कोई उत्सव रहा होगा जब अमित को पुरस्कार न मिला हो” मैंने कहा , “पापा ,आज तो मुझे भी टॉप फाइव विद्यार्थियों में से एक होने का पुरस्कार मिलेगा.” पापा ने कहा “हाँ ,आज मैं बहुत खुश हूँ,तभी तो यहाँ आया हूँ” खैर ,जीवन में पहली बार पापा मेरे कारण खुश हुए. विभिन्न श्रेणियों में हुई प्रतियोगिताओं में प्रथम ,द्वितीय और तृतीय स्थानों पर रहे प्रतिभागियों को पुरस्कार दिया जा रहा था. तभी एक उद्घोषणा हुई, “पिछले दो सालों से हमने आल राउंडर का खिताब किसी को नहीं दिया. पर इस साल यह खिताब एक ऐसे शख्स को दिया जा रहा है जिसकी वज़ह से हमारे छात्रावास का कोना – कोना जगमगा गया है. गज़ब का जादू है उसके हाथों में, उसका लगन और परिश्रम अतुल्य है. पढ़ाई में उत्तम होने के साथ – साथ कला को भी आत्मसात करने वाला यह शख्स और कोई नहीं ,अपना आनंद मल्होत्रा है. ” मैं इस अप्रत्याशित उद्घोषणा के लिए तैयार नहीं था ,सो जड़वत हो गया। पूरे सभागार में तालियों की गड़गड़ाहट गूंज रही थी.
मेरे साथियों ने मुझे गोद में उठा कर स्टेज पर पहुंचाया. मैंने मुख्य अतिथि के साथ – साथ मंचासीन सभी विशिष्ट व्यक्तियों के पांव छुए. उनसे आग्रह किया कि मैं अपने पेरेंट्स को भी मंच पर बुलाना चाहता हूं. उनकी स्वीकृति मिलते ही पापा – मम्मी स्टेज पर आए. पापा ने मुझे गले से लगा लिया और तब तक अपने से चिपकाये रखा जब तक मुख्य अतिथि ने उनका पीठ न थपथपाया. बेहद भावुक क्षण था वह मेरे लिए ,कभी न भूलने वाला. पापा की आंखों से बहती अविरल धारा वर्षों की मेरी नाकामी को झुठला रही थी.
डिस्क्लेमर : ये लेखिका के निजी विचार हैं.