Anand Kumar
बाबा रामदेव बनाम इंडियन मेडिकल एसोसिएशन विवाद के बाद एलोपैथी बनाम आयुर्वेदिक की बहस बढ़ गई है. सोशल मीडिया में भी लोग इसके पक्ष और विपक्ष में अपने-अपने तर्कों के साथ बहस में उलझे हैं. कुछ लोगों का कहना है कि 90 प्रतिशत कोरोना मरीज काढ़ा, भाप, योग और अन्य देसी नुस्खों से ही ठीक हो गये. उसी तरह ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जिन्हें यह सब करने के बाद आखिरकार अस्पताल जाना पड़ा. उनमें से बहुत सारे लोग ठीक होकर घर आ गए और बहुतों को बचाया नहीं जा सका.
मेरा अपना अनुभव यह बताता है कि जो लोग घर में रहकर भाप, काढ़ा जैसे देसी नुस्खों से ठीक हुए, उनमें ज्यादातर लोग एसिमटोमेटिक थे. यानी वैसे मरीज जिनमें कोरोना संक्रमण के कोई लक्षण ही नहीं थे. उन्हें बस कोरोना नेगेटिव रिपोर्ट का इंतजार करना था. वे अपनी अच्छी इम्युनिटी से बचे रहे और उन्हें काढ़ा, स्टीम, गार्गल या देसी नुस्खे के अलावा किसी चीज की जरूरत नहीं पड़ी. लेकिन वैसे लोग जिनमें संक्रमण का स्तर अधिक था, लगातार हाई फीवर था, ऑक्सीजन लेवल कम हो रहा था, सांस फूलने और खांसी की समस्या थी, उनपर किसी देसी नुस्खे ने काम नहीं किया. कई लोग घर पर इलाज के चक्कर में जान से हाथ भी धो बैठे या कई दिन तक गम्भीर हालत में अस्पतालों में रहे.
कहने का मलतब यह है कि आयुर्वेद, होमियोपैथी अथवा यूनानी इलाज, ज्यादा असरकारक और कारगर तभी हैं, जब या तो प्रतिरोधक क्षमता बढ़ानी हो या बीमारी जानलेवा नहीं हो. इसमें संदेह नहीं कि आयुर्वेद या अन्य वैकल्पिक पद्धतियां बीमारी को जड़ से ठीक कर सकती हैं, लेकिन इन्हें अपनाने के पहले कुछ बातों पर विचार जरूरी हो जाता है.
पहली बात यह कि जहां जान पर बनी हो, वहां मरीज से एक्सपेरिमेंट कौन करे. क्योंकि एलोपैथी में किसी भी बीमारी के इलाज का एक स्टैंडर्ड प्रोसीजर है. यह आपकी बीमारी को जड़ से नहीं मिटाता, लेकिन आपको इस स्तर पर ला जरूर देता है कि आपका शरीर दवाओं के सहारे उचित खानपान और परहेज बरत कर बीमारी से लड़ कर स्वस्थ हो जाये.
दूसरी बात, आयुर्वेद में बीमारी का इलाज डॉक्टर की कुशलता पर निर्भर करता है. मैंने अपने बचपन मे देखा है. हमारे इलाके में एक वैद्यजी थे. बीमारी होने पर जब भी हम उनके पास जाते, वे काफी देर तक खान-पान और अन्य सवाल पूछते, नाड़ी, धड़कन और अन्य परीक्षण करते. फिर अगले दिन या एक दिन बाद आकर दवा ले जाने को कहते. वैद्यजी खुद दवा बनाते थे. उसका असर भी होता था.
कहने का मतलब यह कि एक अच्छा आयुर्वेदिक चिकित्सक मरीज के लक्षणों के मुताबिक खुद जड़ी-बूटी और रसायनों के मेल से दवा बनाता है. होमियोपैथी में भी ऐसा ही है. डॉक्टर काबिल हो, लक्षण पकड़ ले, दवा सही बन जाये, तो इन दवाओं में बीमारी को जड़ से मिटाने की क्षमता है. लेकिन अच्छे और काबिल आयुर्वेदिक और होमियोपैथिक डॉक्टर कितने हैं. और उनमें से कितने हैं, जो खुद जड़ी-बूटियों और रसायनों की पहचान कर मरीज के हिसाब से खुद दवा तैयार करते हैं. हमारे देश में बेईमानी और मिलावट की जो हालत है, उसमें बाजारू आयुर्वेदिक दवाओं के दम पर इलाज की बात सोचना मूर्खता है.
इसलिए बहस एलोपैथी बनाम आयुर्वेद की नहीं होनी चाहिए, बल्कि इस बात पर होनी चाहिए कि अच्छे आयुर्वेदिक डॉक्टर अथवा वैद्य कैसे तैयार हों. ऐसे चिकित्सक, जो मरीज के लक्षणों को जानकर उसके हिसाब से इलाज कर सकें. अभी तो आयुर्वेद भी एलोपैथी की तर्ज पर बाजारू दवाओं के दम पर बीमारी से लड़ने का दावा कर रहा है. और उसके लिए बाजार के बल पर एलोपैथ से लड़ना असम्भव है. इसलिए खुद को दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने के लिए एलोपैथ बनाम आयुर्वेद की अंतहीन बहस बेमानी है. असल मुद्दा तो मरीज को त्वरित, समुचित, स्थायी और सस्ता इलाज उपलब्ध कराना है. वह एलोपैथी करे, आयुर्वेद करे अथवा दोनों मिलकर करें.