Sriniwas
एक सहज संभावना तो यही है कि नतीजे एक्जिट पोल (औसत) के अनुरूप हो और महागंठबंधन की, यानी तेजस्स्वी यादव की सरकार बन जायेगी. दूसरी सम्भावना यह है कि एनडीए को बहुमत मिल जाये और नीतीश कुमार पुनः मुख्यमंत्री बन जायें. तीसरी सभावना है कि किसी को बहुमत न मिले, यानी त्रिशंकु विधानसभा गठित हो. वैसी स्थिति में ‘ह्रदय परिवर्तन’ (आप चाहें तो ‘दलबदल’ भी कह सकते हैं) और खरीद-फरोख्त का नया ‘खेल’ शुरू होगा, जिसमें भाजपा को महारत हासिल है. उसके पास इसका अनुभव है, कुशल मैनेजर हैं, समुचित ‘साधन’ हैं; और केंद्र की सत्ता है. दूसरी ओर अन्य दलों के पास उचित मुआवजा मिलने पर जमीर बेचने को तैयार माननीय होंगे. ऐसे तरीकों के सहारे वह अनेक राज्यों में एक तरह से मतदाताओं द्वारा ‘नकारे’ जाने के बावजूद सत्ता हासिल कर चुकी है; या दूसरे दलों का तख्ता पलट कर चुकी है. यानी नीतीश कुमार के कंधे पर बन्दूक रख कर भाजपा का आलाकमान ‘ट्रंप कार्ड’ खेलने का प्रयास कर सकता है. यानी भाजपा जोड़तोड़ से सरकार बनाने की जुगत लगा सकती है.
लेकिन इसी के साथ आशंकाएं जुड़ी हुयी हैं. आशंका यह कि इस बार के चुनाव में विपक्ष या तेजस्वी के समर्थकों में जोश और उत्साह दिखा है, ऐसे तिकड़मों के सहारे जनादेश का अपहरण करने के प्रयासों का तीखा विरोध हो सकता है, जिसका नतीजा राज्यव्यापी उपद्रव के रूप में नजर आ सकता है.
यह बात एक चर्चित और ‘लोकप्रिय’ अखबार के बिहार के एक शहर से निकलने वाले एडीशन के सम्पादक ने भी आज ( 9.11 को ) निजी बातचीत के क्रम में कही. वह अखबार नीतीश कुमार का मुरीद होने के कारण विख्यात या कुख्यात रहा है. उक्त पत्रकार (स्थानीय सम्पादक) भी राजद या भाजपा विरोधियों के प्रशंसक नहीं हैं. लेकिन इतने ईमानदार जरूर हैं कि ‘क्या हाल है? पूछते ही एक सांस में बिहार चुनाव का अपना विश्लेषण और आकलन सुना दिया, जो मुझे सच के करीब लगा. यहां उस विस्तार में जाना गैरजरूरी है, न अब समय है.
कुल मिला कर उनका निष्कर्ष यह था कि महागंठबंधन को असानी से बहुमत मिलने के आसार प्रबल हैं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ; और बहुमत न मिलने पर भी एनडीए ने जुगाड़ से सत्ता कब्जाने के प्रयास किया तो सड़कों पर विपक्ष का आक्रामक आक्रोश देखने को मिल सकता है.
नतीजा जो भी हो, इसमें कोई संदेह नहीं कि नीतीश कुमार के प्रति जनता में एक गुस्सा और असंतोष था. लॉकडाऊन के दौरान बाहर से आ रहे और आये श्रमिकों के प्रति उनके बयानों को संवेदनहीन माना गया. लालू.प्रसाद और राबड़ी देवी के खिलाफ उनकी अभद्र टिप्पणियों से खुद नीतीश जी की छवि खराब हुयी और संदेश यह भी गया कि पराजय सामने देख वे बौखला गये हैं.
इसे भी पढ़े-भूख से कथित मौत के मामले में हाईकोर्ट ने लिया संज्ञान, सरकार से मांगा जवाब
खुद भाजपा मानो उनसे मुक्ति चाहती थी
लोजपा का अलग होना और चिराग पासवान की नीतीश और जदयू के खिलाफ अविरल बयानबाजी; और उस पर भाजपा के सीनियर नेताओं का खुल कर न बोलने का जो संदेश गया, उससे एनडीए खेमे में भ्रम बना. जदयू के लोगों को लगा कि भाजपा पीठ पीछे कोई खेल कर रही है. नतीजन जदयू के लोगों ने भी अनेक जगहों पर अघोषित रूप से भाजपा के खिलाफ काम किया.भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं व मंत्रियों तक ने राज्य की समस्याओं और राज्य सरकार की उपल्बधियों पर बोलने के बजाय पाकिस्तान, पुलवामा, धारा 370 आदि पर अधिक बोले. पर शायद यह दांव चला नहीं.
उम्मीद करें कि जनादेश स्पष्ट हो; और न भी हो तो पर्दे के पीछे कोई खेल न हो.
इसे भी पढ़े- एक ही जेल में जमे कार्यरत कर्मियों की कैदियों से बढ़ गयी है सांठगांठ
डिस्केलमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.