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Brijendra Dubey
केंद्रीय मंत्री रहे लोजपा नेता पशुपति पारस ने एनडीए में कोई सीट न मिलने और लोजपा चिराग गुट को तवज्जो मिलने को अपने साथ अन्याय बताते हुए एनडीए छोड़ दिया है. रामविलास पासवान के परिवार में भाजपा ने पहले चाचा पशुपति पारस के कंधे पर हाथ रखा और अब लोकसभा चुनाव में भतीजे चिराग पासवान के साथ चुनावी समझौता करके भाजपा ने वक्त के हिसाब से अपनी राजनीतिक पसंद जाहिर कर दी है. दूसरी तरफ झारखंड में शिबू सोरेन परिवार में भी आपसी कलह का फायदा उठाते हुए भाजपा ने इस परिवार में भी पहली बार सेंधें लगाने में सफलता हासिल कर ली है. गुरुजी की बड़ी बहू तो सीता सोरेन को भाजपा ने अपने पाले में लाकर यह साफ संदेश दिया है कि वह सियासी परिवारों की कलह में मूकदर्शक नहीं रहेगी. बता दें कि सियासी पारिवारिक कलह केवल इन दो परिवारों तक ही सीमित नहीं है. पारिवारिक कलह का शिकार महाराष्ट्रक ठाकरे और पवार परिवार भी हुआ है और ऐसी ही खबर बंगाल की ममता बनर्जी के परिवार से भी आई है. सबसे पहले भाजपा ने कांग्रेस की भी पारिवारिक कलह का फायदा उठाया था, जब मेनका गांधी और वरुण गांधी को मिला लिया था. अब सवाल उठता है कि ऐन लोकसभा चुनावों के समय इन परिवारों में उभरती कलह से किसका फायदा होने वाला है? एक सवाल यह भी है कि इन परिवारों में कलह किसी रणनीति का हिस्सा तो नहीं है? इस पर विस्तार से चर्चा लाजिमी है.
पासवान परिवार की लड़ाई में अक्सर पशुपति पारस का शून्य के तौर पर आकलन होता है. पर ऐसा नहीं है. चाचा-भतीजे के झगड़े में नुकसान तो लोजपा के दोनों गुटों का ही होने वाला है. पशुपति की सामर्थ्य समझने के लिए हमे थोड़ा पासवान परिवार के इतिहास में जाना होगा. रामविलास पासवान अपने भाई राम चंद्र पासवान जो कि प्रिंस राज के पिता हैं, को केंद्रीय राजनीति में रखते थे, जबकि पशुपति पारस को वे अपने गृह क्षेत्र अलौली से विधायक बनवाते थे. ताकि उनके सहारे प्रदेश की राजनीति पर भी पकड़ बनी रहे. यही कारण था कि रामविलास राष्ट्रीय और पशुपति प्रदेश अध्यक्ष हुआ करते थे. वर्ष 2000 में जब नीतीश सात दिन के सीएम बने, तब उनके साथ सुशील मोदी और पशुपति पारस ही मंत्री बने थे. मतलब रामविलास के सियासी वारिस तब पारस ही थे. 2017 में भी जब नीतीश राजद का साथ छोड़ भाजपा के साथ आए तो पारस फिर नीतीश सरकार में मंत्री बने थे.
रामविलास पासवान अपने छोटे भाई पशुपति को कितना मानते थे, यह तब सामने आया, जब 2019 में जब खुद राज्यसभा गए तो पशुपति को हाजीपुर की सेफ सीट दी. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि वे चाहते तो बेटे चिराग को हाजीपुर से सांसद बना सकते थे. रामविलास पासवान के निधन के बाद जब चिराग ने विधानसभा चुनाव में एनडीए से अलग होकर नीतीश के खिलाफ उम्मीदवार उतारने की रणनीति बनाई, तो पारस नाराज हो गए. इस चुनाव में चिराग ने 143 उम्मीदवार उतारे इनमें से 45 ने जदयू उम्मीदवारों को हराने में अहम रोल निभाया. जब चिराग बॉलीवुड में पैर जमाने की कोशिश कर रहे थे, तब पार्टी पारस ही चला रहे थे. ऐसे में पशुपति को कमजोर समझना भारी भूल होगी. यह कुछ वैसे ही चूक है जैसे उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने शिवपाल की उपेक्षा करके की थी. जिसका फल समाजवादी पार्टी आज तक भुगत रही है. जाहिर है कि दोनों अगर एक साथ रहते, तो ज्यादा मजबूत होते. दोनों की आपसी लड़ाई का नुकसान लोजपा को भी हो सकता है. अगर पशुपति पारस महागठबंधन की ओर से हाजीपुर संसदीय सीट से चुनाव लड़ जाते हैं, तो चिराग के लिए मुश्किल भी हो सकती है.
इसी तरह झारखंड के पूर्व सीएम शिबू सोरेन की बहू और भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बंद पूर्व सीएम हेमंत सोरेन की भाभी विधायक सीता सोरेन भी अपने परिवार से नाराज हो गयीं. सीता सोरेन ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे कर कमल थाम लिया. सीता की नाराजगी उस समय से ही जब सोरेन परिवार का उत्तराधिकारी उन्हें न बना कर हेमंत सोरेन को बना दिया गया था. दरअसल परिवार के असली राजनैतिक उत्तराधिकारी सीता सोरेन के पति दुर्गा सोरेन थे. दुर्गा अपने पिता के साथ झारखंड आंदोलन में कदम से कदम मिला कर चलते रहे. बाद में संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई. उसके बाद सीता सोरेन ने राज्य की राजनीति में कदम रखा. हेमंत सोरेन राजनीति के लिए अनिच्छुक बताए जाते थे. जिस तरह गांधी फैमिली में संजय गांधी की मौत के बाद राजीव गांधी को जबरन राजनीति में आना पड़ा, कुछ वैसा ही हेमंत सोरेन के साथ हुआ. सीता सोरेन ने हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद चंपाई सोरेन को सीएम बनाने का भी विरोध किया था. तब किसी तरह उन्हें मना लिया गया था.
जाहिर है कि वे अब भाजपा में शामिल हो चुकी हैं तो ऐसे में झामुमो का नुकसान होना तय है. फायदा तो सिर्फ भाजपा का ही दिखाई दे रहा है. हालांकि इसके उलट झारखंड के आदिवासी समाज में हेमंत सोरेन के पक्ष में सहानुभूति की लहर और मजबूत भी हो सकती है. इसका आकलन लोकसभा चुनाव के बाद ही हो सकेगा.
महाराष्ट्र की बात करें, तो बाला साहब ठाकरे परिवार और शरद पवार के परिवार में कलह का फायदा भी भाजपा ही उठा रही है. एनसीपी तो पारिवारिक कलह के चलते बंट चुकी हैं. शिवसेना में राज ठाकरे ने बहुत पहले ही अपनी राह अलग पकड़ ली थी. अब एनसीपी भी परिवार के विवाद में खत्म होने के कगार पर है. शिवसेना की आपसी लड़ाई का फायदा भाजपा ने पहले ही उठाया है. अब जैसा दिख रहा अगर राज ठाकरे एनडीए में आ गये, तो शिवसेना की खास सीटों पर उनके कैंडिडेट्स को लड़ाया जा सकता है. अब पवार परिवार की लड़ाई का मजा भी भाजपा को लोकसभा चुनावों में भरपूर उठाना है. ऐसा ही कुछ पश्चिम बंगाल में देखने को मिल रहा है. वहां मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने भाई बबून से नाराज हो गई हैं. हाल ही में उन्होंने यहां तक बयान दिया कि उन्होंने अपने भाई से सभी तरह का रिश्ता तोड़ लिया है. उनके भाई ने भी निर्दलीय प्रत्य़ाशी के रूप में चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है. वहां भी भाजपा हर कोशिश करेगी कि ममता बनर्जी के भाई की नाराजगी का हर संभव फायदा उठाया जाए.
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