Chaibasa (Sukesh Kumar) : पूर्व सांसद सालखन मुर्मू ने कहा कि विश्व आदिवासी दिवस का अनुपालन 9 अगस्त 1994 से संयुक्त राष्ट्र ने प्रारंभ किया है. चूंकि 9 अगस्त 1982 को जिनेवा में सर्वप्रथम यूएन ने आदिवासियों के मानवीय अधिकारों पर चर्चा की थी. इसके बाद 13 सितंबर 2007 को यूएन ने आदिवासी अधिकार घोषणा पत्र भी जारी किया है. दुनिया की लगभग 7000 भाषाओं में से 40% भाषाएं विलुप्त होने के कगार पर खड़ी हैं. इसमें सर्वाधिक आदिवासी भाषाएं हैं. अतः उनके संरक्षण हेतु यूएन ने आदिवासी भाषा दशक (2022 से 2032) भी घोषित किया है. अब 9 अगस्त को दुनिया के लगभग 90 देशों के 47 करोड़ आदिवासी या इंडीजीनस पीपल जन्मदिन या बर्थडे की तरह इसे मना रहे हैं. मरते- मरते भी थोड़ी खुशी मना लेना है. क्या पता पुनर्जन्म हो जाये. दुनिया भर के आदिवासी नशापान, अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, राजनीतिक कुपोषण और आपसी समन्वय की कमी से टूटते, बिखरते और लड़ते-लड़ते मर रहे हैं. भारत में आदिवासी (एसटी) के आरक्षण कोटे से 47 लोकसभा आदिवासी सांसद और 553 आदिवासी विधायक हैं, लेकिन देश में कोई आदिवासी नेतृत्व और आदिवासी आवाज नहीं है. संविधान प्रदत्त अनेक अधिकार हैं. मगर किसी राजनीतिक दल और सरकारों ने अब तक इसे तवज्जो नहीं दिया है. अब तो देश की राष्ट्रपति और मणिपुर की राज्यपाल भी आदिवासी महिलाएं हैं. इसके बावजूद मणिपुर में आदिवासी महिलाएं खुलेआम दरिंदगी का शिकार हो रही हैं. राजनीतिक फायदे और आदिवासी आरक्षण लूटने के लिए अब देशभर के आदिवासी क्षेत्रों में मणिपुर की आग फैल सकती है.
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आदिवासियों को का नरसंहार करना चाहते हैं राजनीतिक दल
सालखन मुर्मू ने कहा कि चूंकि अब अनेक समृद्ध और अधिसंख्यक जातियों को राजनीतिक दल वोट बैंक का राजनीतिक लाभ लेने के लिए असली आदिवासियों (संताल, मुंडा, उरांव, गोंड, भील आदि) को बलि का बकरा बना कर उनका नरसंहार करना चाहते हैं. अभी कुर्मी – महतो को एसटी बनाने के सवाल पर जेएमएम, टीएमसी, बीजेडी और कांग्रेस ने खुलेआम समर्थन दे दिया है. तब असली आदिवासियों की हालत कुकी-नागा आदिवासियों की तरह होना निश्चित है. जातीय संघर्ष के इस नरसंहार को कुछ सरफिरे हिंदू ईसाई का चोला पहना रहे हैं, जो न्याय और मानवता की दृष्टिकोण से बिल्कुल अनुचित है.
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नई जातियों को एसटी में 30 वर्षों तक नहीं किया जाए शामिल
सालखन मुर्मू ने कहा कि नई जातियों को एसटी सूची में शामिल करने के दरवाजे को अभी अगले 30 वर्षों तक बंद कर देना चाहिए. इस बीच पहले से एसटी सूची में शामिल आदिवासियों की दशा-दिशा की समीक्षा और भविष्य में उनकी सुरक्षा और समृद्धि के लिए एक मजबूत रोड मैप बनाया जाये. दूसरी तरफ विकास की अंधी दौड़ ने दुनिया भर में प्रकृति-पर्यावरण को भी नहीं छोड़ा तो आदिवासी किस खेत की मूली हैं. 2023 का विश्व आदिवासी दिवस भारत और झारखंड के आदिवासियों के लिए केवल नाचने- गाने का अवसर ना होकर अपना अस्तित्व, पहचान और हिस्सेदारी की रक्षार्थ एकजुट होकर शपथ और संकल्प लेने का अंतिम मौका जैसा है.