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Nishikant Thakur
विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में लोकसभा चुनाव का तीसरा चरण संपन्न हो गया. जीत-हार का निर्णय सात चरणों के चुनाव के बाद चार जून को होनेवाली मतगणना के बाद होगा. इस चुनाव में उनका भाग्योदय होगा, जिन्हें जनता बड़े सोच विचार से अपना अनमोल वोट देकर संसद में भेजने का निर्णय लिया होगा. अभी जो भी गणना या रुझान आपको दिखाया जाता है, वह समाज को दिग्भ्रमित और अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए दिखाया जा रहा है. ऐसे लोगों का उद्देश्य यह होता है कि आनेवाले चरणों में होनेवाले चुनावों पर इन रुझानों का प्रभाव पड़े और जिस दल की वे मार्केटिंग कर रहे हैं, उसे आगामी चरणों के चुनाव में लाभ मिले. क्योंकि आज भी हमारा समाज सुनी-सुनाई बातों के पीछे अपनी बुद्धि का प्रयोग करने से कतराता नहीं है. इसी का लाभ आज के ऐसे सर्वेयरों को मिलता है, जो अपने तामझाम से जनता के बीच पकड़ बना चुके होते हैं. अभी कुछ सप्ताह इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट तथा सोशल मीडिया पर वही दहाड़-फुफकार सुनते रहेंगे कि अमुक स्थान पर उस पार्टी ने बढ़त बना ली है.
साथ ही भविष्य के लिए तथाकथित अंकों को भी स्पष्ट करते हैं कि इस पार्टी को उतनी और इस पार्टी को इतनी सीटें मिलने जा रही हैं और इसी के साथ चार जून को इस पार्टी की सरकार बनने जा रही है. एक से एक ज्योतिष अपनी गणना करके समाज को भ्रमित करते रहते हैं. सत्ताधीश भाजपा के सबसे मुखर नेता तथा जिनके नाम पर जनता से वोट मांगा जाता है, उनका स्वर तीसरे चरण के मतदान के बाद बदल गए हैं. अब प्रधानमंत्री के भाषण को सुनने पर यह नहीं लगता कि वह कोई नई बात कह रहे हैं, या लोग अब यह कहने लगे हैं कि प्रधानमंत्री का जो भाषण ओज से भरा होता था तथा जिसे सुनने के लिए दूर—दूर से लोग आते थे, अब उनमें ऐसा नहीं रहा.
तीसरे चरण के चुनाव होते होते उन नेताओं की भी स्थिति वैसी नहीं रही, जब प्रधानमंत्री के भाषण को सुनने दूर—दूर से लोग आते थे और भाषण के बाद उनके भाषण पर सभी सकारात्मक समीक्षा करते थे, लेकिन जब से सरकार ने मुस्लिम पक्ष को ललकारना शुरू कर दिया, भारत पाकिस्तान की बात करके उन्हें सबसे खतरनाक पड़ोसी मानने की बात कहने लगे, तभी से माहौल बिल्कुल बिगड़ता चला गया. निश्चित रूप से भारतीय ताकत के समक्ष पाकिस्तान की कोई औकात नहीं है, लेकिन इस बात का नारा भी अपने देश में ही दिया गया कि बहुसंख्यक हिन्दू खतरे में आ गया है, जबकि इसकी आशंका दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती है. हिन्दुओं को खतरे में बताने वाले भी यह नहीं बता पाते कि अपने ही देश में सत्तर प्रतिशत की आबादी वाला हिंदू खतरे में कब, क्यों और कैसे आ गया! हां, खतरे की बात का ढिंढोरा जरूर पीटते रहते हैं.
हद की बात तो यह है कि देश के हिंदू खुद भी कहीं से भी खतरे में नहीं मानता. कहीं ये भाजपा की ओर से बनाया गए ‘छद्म हिंदू’ तो नहीं हैं, जिनके दम पर भाजपा हमेशा सत्ता पाने की जुगाड़ में लगी रहती है. खैर जो भी हो, ऐसे लोगों के प्रयास से यह तो जरूर संभव हुआ कि अब हिन्दू—मुस्लिम के बीच एक अघोषित खाई सी बनने लगी है. मुस्लिम समाज खुद को अपमानित महसूस करते हुए अपने ही देश में स्वयं को निरीह मानने लगा है. इसी वजह से उनके मुंह से सुना जा सकता है कि अब वह हिंदुस्तान नहीं रहा, जिसमें हम मुसलमान और हिंदुओं ने साथ मिलकर अंग्रेजों को भगाया था.
कैसी विडंबना है कि आज के राजनीतिज्ञ यह सोचने लगे हैं और सार्वजनिक रूप से मंच से कहने लगे हैं हम उन्हें कपड़ों से पहचान लेते हैं. कहां से आती है किसी के मन में दूसरी जाति संप्रदाय के लिए ऐसी नफरत भरी भाषा का प्रयोग करने की हिम्मत? सच यह है कि यह सब राजनीतिज्ञ अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए, तानाशाही की ओर जाती सत्ता के पैरों को मजबूत करने के लिए ही जानबूझकर इन शब्दावलियों का प्रयोग करते हैं, ताकि दूसरे संप्रदाय के मन में भय पैदा हो और उन नेताओं के जो समर्थक हों, उनके मन में अपने नेताओं के प्रति अटूट विश्वास पैदा हो. क्या हो गया आज की सरकार में? एक-दूसरे पर आरोप लगाना तो चलिए स्वाभाविक रूप से चुनावों में चलता आ रहा है, लेकिन धर्म-संप्रदाय के नाम पर इतना झूठ बोलना, जिससे सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ जाए, आजादी के बाद ऐसा कभी हुआ नहीं है.
अपने एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री ने कहा कि विपक्ष में राम मंदिर का फैसला पलटवाने की मंशा खतरनाक है. पता नहीं किसने इस तरह का संदेश प्रधानमंत्री को देकर देश की शांति-व्यवस्था को खतरे डालने का अनैतिक प्रयास किया है. दरअसल, जानवरों का कोई समाज नहीं होता. आदमियों का समाज होता है. समाज के लिए भाषा चाहिए. दो लोगों को जोड़ने के लिए भाषा चाहिए. अगर दो लोगों के बीच भाषा न हो, तो जोड़ नहीं पैदा होगा. भाषा समाज बनाती है. भाषा ही सामाजिकता का आधार है. यदि इस तरह की भाषा प्रधानमंत्री ही जनता को उकसाने के लिए करें, तो इस समाज की, इस देश की रक्षा कौन करेगा!
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.
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