Faisal Anurag
सत्यमेव जयते. भारतीय संस्कृति का सार. इसके बावजूद सत्तासीन के लिए केवल और केवल दुनिया के सामने अपनी छवि के लिए बोलने के दो शब्द. ये शब्द कितने अर्थहीन बनाए जा रहे हैं, इसे राज्यसभा में दी गयी केंद्र सरकार की इस सूचना से समझा जा सकता है, जिसमें कहा गया है कि कोविड की दूसरी लहर के समय ऑक्सीजन की कमी से एक भी व्यक्ति की मौत नहीं हुई. अभी लोग अपनों के खो देने के दुख से बाहर भी नहीं निकले थे कि उनका दुख एक बार फिर गहरा हो गया है. शायद यह दुख उस दुख से कहीं ज्यादा तकलीफदेह है, जो अप्रैल, मई और जून के महीनों में उन्होंने झेला. क्या यही संवेदना है कि देश ने जिसे देखा, महसूस किया, उसे भी झुठला दिया जाए. ऑक्सीजन की कमी के मामले में तो यही हो रहा है. देश की राजधानी दिल्ली में ही ऑक्सीजन की कमी ने जो तबाही मचायी, उसे पूरी दुनिया ने देखा. इसके बावजूद केंद्र कह रहा है कि एक भी व्यक्ति ऑक्सीजन की कमी से नहीं मरा.
राहुल गांधी ने ठीक से रोष व्यक्त किया है. सिर्फ ऑक्सीजन की कमी नहीं थी. संवेदनशीलता और सत्य की भारी कमी तब भी थी और आज भी है. राज्यसभा में राजद के डॉ मनोज झा ने तो केद्र सरकार को ललकारते हुए दुख व्यक्त किया कि एक राष्ट्रीय त्रासदी का इस तरह मजाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए.
राष्ट्रीय त्रासदी बन चुकी दूसरी लहर के दौर में हुई मौतों के लिए माफी मांगने की जगह उसे ही नकार दिया जा रहा है. क्या राज्यसभा के एक बयान मात्र से हकीकत बदल सकती है. जो हो चुका है, उसे बदला नहीं जा सकता. लेकिन जब कमियों ही स्वीकार नहीं की जाएंगी, तो उसमें सुधार क्या होगा. दूसरी लहर की मौतों में बदइंतजामी, बेड की कमी और ऑक्सीजन से ही 60 प्रतिशत लोग मरे थे. देश का कोई ऐसा हिस्सा नहीं था, जिसने इस तबाही को महसूस नहीं किया. देश में कोई ऐसा नागरिक भी नहीं है, जिनकी जान-पहचान या परिवार में मौतें नहीं हुईं. उस दौर में सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म उन गुहारों से भरे हैं, जिसमें बेड और ऑक्सीजन के लिए लोग तड़प रहे हैं. तब तो सरकारें या तो परिदृश्य से गायब थीं या फिर गहरी नींद में थीं. नागरिक समाज ने ही आपस में दर्द बांटा और एक-दूसरे की मदद की.
राहुल गांधी ने ठीक से रोष व्यक्त किया है. सिर्फ ऑक्सीजन की कमी नहीं थी. संवेदनशीलता और सत्य की भारी कमी तब भी थी और आज भी है. राज्यसभा में राजद के डॉ मनोज झा ने तो केद्र सरकार को ललकारते हुए दुख व्यक्त किया कि एक राष्ट्रीय त्रासदी का इस तरह मजाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए.
यह कितना आसान है कि मोदी सरकार ने मान लिया है कि वह जो कहेगी, देश उसे मान लेगा. वरिष्ठ पत्रकार शीतल पी. सिंह ने फेसबुक पर लिखा है : वे एंटायर पॉलिटिकल साइंस में परास्नातक की डिग्री रखते हैं. वो डिग्री कभी कहीं किसी को नहीं मिली, पर आप मान गये.फिर कहा कि देश की सीमा में न कोई घुसा है न किसी ने क़ब्ज़ा किया है. फिर हमारे 20 जवान 1967 के बाद पहली बार उसी सीमा में कांटेदार डंडों से पीट-पीट कर मरने के लिए बर्फीली नदी में डाल दिये गये और आप फिर भी मान गये कि न कोई कहीं घुसा है न किसी का कोई क़ब्ज़ा है! फिर कहा के Pegasus, ये किस चिड़िया का नाम है, न न न न न न ! ये अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र है! आप कंफ्यूज हो गये! फिर आज कहा कि कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन से किसी के मरने से देश में कहीं से कोई शिकायत नहीं है, इसे भी मान लोगे?
23 अप्रैल 2021 को गंगाराम अस्पताल में उन 25 मौतों को भी याद कीजिए, जो ऑक्सीजन की कमी से हुई थी. यह तो सिर्फ एक बानगी है. लोगों को संवदेना की जरूरत है न कि उस झूठ की. कौन नहीं जानता दो महीने तक सरकार या तो गायब रही या सोयी रही
सोशल मीडिया इस तरह की टिप्पणियों से भरी हुई है. यदि तब के अखबारों को ही उलट लिया जाए तो त्रासदी का भयावह चेहरा अब भी आतंकित कर देता है. द लाइवमिंट ने 5 मई को दिल्ली हाईकोर्ट के उस आदेश का उल्लेख किया है, जिसमें अदालत ने केंद्र को ऑक्सीजन की कमी के लिए फटकारा है. द हिंदू की खबर 4 मई की है, जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट ने ऑक्सीजन तत्काल आपूर्ति नहीं किए जाने पर सरकार के खिलाफ अवमानना की चेतावनी दी है. हिंदुस्तान टाइम्स, भास्कर, टाइम्स ऑफ इंडिया की खबरों को याद कर लीजिये, हकीकत बयान हो जाएगा. यही नहीं ऑक्सीजन पर तो सुप्रीम कोर्ट, पटना हाईकोर्ट, रांची हाईकोर्ट, मुंबई हाईकोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट की तब की सुनवाई,टिप्पणी और आदेशों को याद कर लीजिए. इंग्लैंड, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया के अखबारों की खबरों को भी याद कीजिए. द ऑस्ट्रेलियन की खबर का तो प्रतिवाद भारत सरकार ने किया था, जिसे उस अखबार ने छापा तक नहीं था. द इकोनॉमिस्ट और टाइम पत्रिकाओं के कवर की तस्वीरें तो अब भी चीखकर उन मौतों को सुनियोजित हत्या बता रही हैं.
23 अप्रैल 2021 को गंगाराम अस्पताल में उन 25 मौतों को भी याद कीजिए, जो ऑक्सीजन की कमी से हुई थी. यह तो सिर्फ एक बानगी है. लोगों को संवदेना की जरूरत है न कि उस झूठ की. कौन नहीं जानता दो महीने तक सरकार या तो गायब रही या सोयी रही. देश के लोगों ने ही एक दूसरे के सलीब को सहारा दिया और दर्द में साझापन दिखाया. अब तो अमेरिका ही एक अध्ययन में कहा गया है कि उसी समय कम से 30 से 47 लाख लोग मरे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही आर्थिक सलाहकार रह चुके अरविंद सुब्रह्मण्यम ने भी इस शोध में भाग लिया है. लोग तो अपना सलीब स्वयं ढोने के लिए बाध्य हैं, क्योंकि नागरिक एक वोटर मात्र बना दिया गया है, जिस पर धर्म और जाति का गहरा असर है.