Faisal Anurag
अंबानी प्रोडक्ट के बहिष्कार का आह्वान के बहाने किसानों ने नरेंद्र मोदी सरकार की कॉरपारेटपरस्ती को बेनकाब करने का प्रयास किया है. किसानों के कड़े तेवर के बाद बातचीत के ऑप्शन सीमित हो गये हैं. तीनों कृषि कानूनों की वापसी से कम पर किसान समझौता नहीं करेंगे यह साफ हो चुका है. अमित शाह के प्रस्तावों को जिस दृढता से किसानों ने ठुकराया है, वह भी एक मिसाल है.अमित शाह इस सरकार के चाणक्य माने जाते हैं. पहली बार उन्हें भी किसानों ने झटका दिया है. किसान संगठनों का दावा है कि सरकार गोलमटोल बातें कर रही है जबकि तीनों कानून ही कृषि और किसान विरोधी हैं. सुधारों से ही कृषि की स्वायत्तता नहीं बचेगी. किसान आंदोलन का दबाव ही है कि बिजली विधेयक के प्रस्ताव से सरकार पीछे हटने की बात कर रही है. देश में जिस तरह का माहौल है, उससे किसान संगठनों का हौसला बुलंद है. आजादी के बाद के इतिहास का यह सबसे बड़ा किसान आंदोलन है जो न केवल विचारों से स्प्ष्ट है बल्कि जिसका इरादा भी मजबूत है.
किसानों ने जियो समेत रिलासंय ग्रुप के तमाम प्रोडक्ट के बहिष्कार का आह्वन कर एक ऐसे संघर्ष के दौर की शुरूआत कर दी है, जो न केवल मजदूरों और किसानों की एकता को प्रकट कर रहा है बल्कि आर्थिक सुधारों के कॉरपारेट हित का पर्दाफाश भी करता है. 2014 के बाद से ही मोदी सरकार पर आरोप है कि वह चंद कॉरपोरेट घरानों, जिसमें अडानी और अंबानी प्रमुख हैं, उनके हितों के अनुकूल ही नीतियों और कानूनों को बना रही है. प्रधानमंत्री सहित केंद्र के तमाम मंत्री कृषि कानूनों को किसानों के लिए जरूरी बता रहे हैं. लेकिन किसानों के इस सवाल का जबाव कोई नहीं दे रहा है कि आखिर किस समूह ने इन कानूनों की मांग की थी. भारत का कृषि संकट दूसरा है. नरेंद्र मोदी किसानों की आय दोगुनी करने की बात करते रहे हैं.
2014 के चुनाव में तो उनका प्रमुख नारा था कि बहुत हुआ किसानों पर अत्याचार. लेकिन किसानों ने ही दिल्ली को जिस तरह घेर रखा है, उससे सरकार की नीतियों के पक्ष को लेकर सवाल उठना लाजिमी ही है.स्वराज इंडिया के प्रमुख योगेंद्र यादव ने मोदी सरकार के संशोधन प्रस्ताव पर कहा है ‘सरकार का प्रस्ताव मिला. वही प्रॉपेगैंडा, वही संशोधन के सुझाव. खोदा पहाड़ निकली चुहिया. किसान संगठनों ने एक स्वर से इन प्रस्तावों को खारिज किया.’
किसान संगठन भी कह रहे हैं कि सरकार पिछले चार दौरों की वार्ता से आगे नहीं बढ़ रही है. किसान भी गृहमंत्री के पास यस या नो सुनने गये थे, किसी संशोधन प्रस्ताव की बात करने नहीं. किसान संगठनों की एकजुटता ही परिचायक है कि अब जयपुर दिल्ली राजमार्ग और आगरा दिल्ली एक्सप्रेस वे को भी बंद करने का कार्यक्रम घोषित किया गया है.
आंदोलन के तेवर चंपारण के गांधी सत्याग्रह की याद दिलाते हैं, जिसमें गांधी ने अंग्रेजी सरकार से दंडित होना तो स्वीकार किया लेकिन दंडित होना नहीं. किसानों को अपने आंदोलनों का इतिहास का ज्ञान भी है कि किसानों की ताकत को कोई भी सरकार खारिज नहीं कर सकती है. मोदी सरकार की भी यही परेशानी है. हालांकि अब तक चुनावों में उसे नुकसान नहीं हुआ है, लेकिन किसानों के नये तेवर 1974 के जयप्रकाश आंदोलन की तरह राजनैतिक परिवर्तन की ओर बढ़ता दिख रहा है.
किसानों ने जिस तरह आर्थिक नीतियों को निशाने पर लिया है, उससे विपक्षी दलों की चुनौती भी बढ़ गयी है. भारत के ज्यादातर राजनैतिक दल भी आर्थिक सुधारों के पक्षधर हैं और भारत के संदर्भ में स्पष्ट है कि आर्थिक सुधार का मतलब देश-विदेश के कॉरपारेट के हितों के लिए कार्य करना है. तो क्या विपक्ष भी अपने आर्थिक नजरिये में बदलाव कर सकेगा. अनेक देशों की सरकारें कॉरपारेट के नियंत्रण में रहती है. भारत में भी देशी-विदेशी कंपनियों की निगाह ऐसे ही बाजार के लिए है, जो उसे कानून के बंधनों से मुक्त कर सके. इन कंपनियों के निशाने पर खेती,जमीन और जल है.