Faisal Anurag
चंपारण की अदालत में गांधी जी ने देश में कहीं आने जाने की बंदिश को जिस तरह मानने से इनकार किया उससे नील की खेती से तबाह किसानों का सारा खौफ टूट गया. अंग्रेजी भारत में पहली बार किसी व्यक्ति ने अंगेजी शासन का आदेश मानने से इनकार किया था. लेकिन उन्होंने यह भी कहा, मैजिस्ट्रेट चाहे तो इसकी सजा दे सकता है. इसके बाद तो देश के किसानों ने आतंक और खौफ की दीवारों को तोड दिया. 1917 अप्रैल की 17 तारीख को गांधी जी मोतिहारी पहुंचे थे. नील आतंक से तबाह किसानों ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. भारत की आजादी की लडाई में मध्यवर्ग की सीमाएं भी इससे बिखरने लगी.
अब तक 104 साल बीत चुके हैं लेकिन किसान अपने देश के भीतर एक बार फिर प्रतिरोध कर रहे हैं. भारत की सरकार का रूख किसानों को बदनाम करने और खास समूहों में देशद्रोही साबित करने का है. गांधी के शहादत दिवस पर देश भर के लाखों किसानों ने उपवास किया और अपने संकल्पों को दुहराया है.
2020 वह साल है जब महात्मा गांधी आंदोलन के केंद्र में आये. उनका शांतिमय प्रतिरोध पहले नागरिकता विरोधी आंदोलन में आजमाया गया और अब तीन काले कानूनों के खिलाफ किसान उसी राह पर चल रहे हैं. बिल्कुल निडर होकर और साहस के साथ सरकार, भाजपा, मीडिया के प्रोपेगेंडा के खिलाफ डटे हुए हैं. उनके आंदोलन में गांधी जैसा चमत्कारी नेतृत्व तो नहीं है लेकिन वह प्रेरणा मौजूद है, जिसे गांधी ने आजादी की लड़ाई में गरीब से गरीब की भागीदारी को निर्धारित किया था. उनका शहादत दिवस भारतीय जनों के सद्भाव, धर्मनिरपेक्षता और इंसाफ का प्रतीक बन गया है.
जिस गांधी को 30 जनवरी 1948 को तीन गोलियां मारी गयी थी, वह गांधी भारत के किसानों, मजदूरों और वंचितों को बेखौफ हो न्याय और जनतंत्र की प्रेरणा देता है. गांधी की हत्या सुनियोजित तरीके से की गयी थी. आजाद भारत में गांधी पर हुआ हमला आतंकवादी था और हत्यारा उन विचारों से लैस था जो देश के सेकुलर तानेबाने के खिलाफ है.
गांधी पर हमला केवल सांप्रदायिक रूझान वाले ही नहीं करते हैं बल्कि उन्हें अंबेडकर और भगत सिंह के बरखिलाफ खड़ा किया जाता है. विचारों की असहमति के बावजूद गांधी अंबेडकर और भगत सिंह की राह के खिलाफ कभी खड़े नहीं हुए. उनका विश्वास जरूर अहिंसा से निर्देशित होता रहा लेकिन उनके विचारों के विकास को नये तरीके से समझने की जरूरत है. हिंद स्वराज के हिंदोस्तान की परिकल्पना से 1942 आते-आते वे बदलने लगे थे. उनके जीवनीकार लुई फीशर की किताब में मौजूद 1948 की बातचीत का हिस्सा बताता है कि वे जमींदारों के खिलाफ खड़े हो रहे थे और जमीन वितरण की राह में खड़ी की जाने वाली बाधाओं से निपटना चाहते थे. फीशर ने गांधी से यह बातचीत उनकी मौत के तीन चार दिनों पहले ही की थी.
इतिहास के अलग-अलग कालखंड की लड़ाईयां नये तरीके को अपनाती रही हैं. लेकिन जब कभी कोई बड़ा आम लोगों की भागीदारी का आंदोलन होता है तब गांधी की प्रासंगिता उभर आती है. गांधी ने न केवल सांप्रदायिक विधटनकारियों के खिलाफ भारत को राह दिखाया बल्कि लोगों के स्वतंत्र और अस्मिताओं की हिफाजत भी की. यही कारण है कि गांधी पर सबसे तीखा हमला वे ताकतें करती हैं जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर विविधताओं और बहुल संस्कृतियों को निगल जाना चाहती है. फिलहाल गांधी को स्वच्छता तक सिमटा देने के प्रयास हुए हैं. स्वच्छता उनका एक सामाजिक कार्यक्रम था लेकिन राजनैतिक तौर पर उनके और भी सरोकार थे. अब नवउपनिवेशवाद के खिलाफ भारत के मेहनतकश सजग हुए हैं.
कहा जा सकता है कि किसान आंदोलन के निशाने पर वे नवउपनिवेशवादी हैं जिसका नेतृत्व गुजरात के दो घराने अंबानी और अडानी समूह कर रहे हैं. लॉकडाउन के दौर के बारे में आक्सफेम की एक तथ्य परक रिपोर्ट में कहा गया है कि इन दोनों समूहों ने कुछ अन्य के साथ मिल कर बेशुमार मुनाफा कमाया है. उस दौर में तब लाखों लोगों की नैकरी गयी और लोगों को तंगहाली का सामना करना पडा. इसी समय भारत के बिलेनियर्स को संपत्ति में 12,97,822 करोड़ रूपये की बढ़ोतरी हुई.
गांधी इस तरह के निरंकुश पूंजीवाद के खिलाफ थे. उनके ट्रस्टीशिप का सिद्धांत बताता है कि उनकी आर्थिक परियोजना की थी. हो सकता है कि ट्रस्टीशिप से आजाद भारत में आगे जाने की जरूरत हो. लेकिन गांधी की मंशा आमलोगों को केंद्र में रखना था और उन्हें आजादी के साथ खुशहाल भी बनाना था. दुनिया ने तकनीक के क्षेत्र में अभूतपूर्व कामयाबी हासिल किया है. तकनीक की निरंकुशता की हिमायत गांधी नहीं कर सकते थे.
किसानों का आंदेालन केवल तीन काले कानूनों की वापसी के लिए ही नहीं हैं. उसके लोकतांत्रिक रूझानों को भी समझने की जरूरत है. इतना बडा आंदोलन बिना किसी एक नेता के सामूहिक नेतृत्व पर सत्ता और कॉरपोरेट की नींद हराम कर रहा है.