Faisal Anurag
कोविड का राजनैतिक इस्तेमाल न केवल इस महामारी को लेकर अनेक सवाल पैदा करता है, बल्कि शासकों के इरादों पर भी अंदेशा प्रकट करता है. खासकर भारत में कोविड के पिछले नौ माह इस बात के गवाह हैं. हालांकि केंद्र सरकार दावा करती है कि उसने दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में कोविड के प्रसार की भयावहता को थामने का भरपूर प्रयास किया है. बावजूद भारत में कोरोना संक्रमितों की संख्या 90 लाख के करीब पहुंच चुकी है और 1 लाख 3 हजार से ज्यादा लोगों की मृत्यु हुई है. आंकड़ों के नजरिये से यह भयावह है. इस आंकड़े से कहीं ज्यादा भयावह असर तो इकोनॉमी पर पड़ा है और आमलोगों के जीवन पर भी. पिछली तिमाही में भारत की जीडीपी माइनस 23.9 दर्ज की गयी है और वर्तमान
तिमाही में भी माइनस 10 रहने की संभावना है. दो तिमाही में माइनस जीडीपी के कारण भारत को मंदी का शिकार माना जा रहा है. लोगों की बेरोजगारी और दूसरे सवाल तो और भी गंभीर हैं.
बावजूद इसके कोविड के राजनैतिक इस्तेमाल के सवाल की गंभीरता बनी हुई है. राज्यों और केंद्र में तालमेल का अभाव और लॉकडाउन के बाद के दिशानिर्देश बताते हैं कि सरकार की ज्यादा दिलचस्पी राजनैतिक हितों को साधने में रही है. संसद के सत्र तक को देर से आहूत किया गया और उसमें प्रश्नकाल को स्थगित किया गया. प्रश्नकाल को कोरोना संक्रमण के खतरे को देखते हुए टाला गया था.
राज्यों के विधानमंडलों के सत्र भी इससे प्रभावित हुए हैं. दूसरी तरफ चुनावों में जिस तरह की भीड़ इकट्ठा होने दी गयी, उससे जाहिर होता है कि सरकारों की प्राथमिकता क्या रही है. बिहार के विधानसभा चुनाव और उपचुनावों के प्रचार अभियान में किसी एक भी गाइडलाइन का पालन नहीं किया गया. यहां तक चुनाव आयोग ने भी खानापूर्ती की तरह गाइडलाइन की घोषणा तो की, लेकिन उसे टूटने भी दिया. पहले तो कहा गया था कि डिजिटल प्रचार होगा, लेकिन चुनाव अभियान प्रारंभ होते ही बड़ी-बड़ी सभाओं की छूट दी गयी.
कहा तो यहां तक गया कि बिहार मॉडल ने कोरोना संक्रमण को परास्त कर दिया है. ऐसे हालात में त्योहार को लेकर जारी गाइडलाइन आम लोगों को परेशान करते हैं. चुनाव,राजनैतिक गतिविधियों में छूट और त्योहार और लोगों के आवागमन के साधनों पर गाइडलाइन परेशानी का सबब है. पिछले 15 दिनों से भारत में कोरोना संक्रमितों की संख्या में कमी तो आयी है, लेकिन यूरोप अमेरिका में जिस तरह का नया संक्रमण लहर दिख रहा है. जल्द ही भारत सहित दक्षिण एशिया के देशों को एक बड़ा कोरोना वेब से गुजरना पड़ सकता है.
कोविड को लेकर अनेक लोगों ने सवाल उठाया है कि इस महामारी को विभिन्न राजनैतिक कारणों से खतरनाक बनाकर पेश किया है. यह महामारी तो है, लेकिन इसका इस्तेमाल करते हुए दुनिया के अनेक देशों के शासकों ने अपनी सत्ता का केंद्रीकरण किया है और तानाशाही प्रवृतियों को लोकमान्यता दिलाने का प्रयास किया है. पोलैंड के शासक ने तो संविधान को ही बदलकर अपनी सत्ता को आजीवन मजबूत कर लिया है. भारत में देखा जा रहा है कि आर्थिक सुधार के अनेक फैसलों ने भारतीय ढांचे को प्रभावित किया है. पंजाब हरियाणा सहित अनेक राज्यों में किसानों के बड़े आंदोलन नये कृषि कानून के खिलाफ हो रहे हैं, जिसमें बड़ी संख्या में लोग भाग ले रहे हैं. बिहार चुनाव में तो प्रधानमंत्री ने 12 से अधिक चुनाव सभाओं को संबोधित किया.
त्योहरों को लेकर सरकारों के गाइडलाइन को चुनौती दी गयी है. खासकर झारखंड में तो भाजपा नेताओं ने छठ को लेकर जारी दिशानिर्देश के खिलाफ मुखरता से विरोध किया है. लेकिन बिहार में भी झारखंड से ही मिलते जुलते दिशानिर्देश हैं. लेकिन उसपर चर्चा तक नहीं हो रही है. दिल्ली और ओडिशा की सरकारों ने भी सख्त निर्देश जारी किये हैं. महाराष्ट्र में धामिक स्थल खोले जाने को लेकर त्याहारों के दौरान विवाद हो चुका है. महामारी से निपटने को लेकर देश और राज्य की सरकारों की आलोचना हुई है.
अमेरिका जैसे देश में भी ट्रंप ने कोरोना संकट का पूरा राजनैतिक इस्तेमाल किया है और ब्राजील में भी यही हुआ है. दिल्ली जैसे शहर में अचानक संक्रमितों की संख्या की गति तेज हो गयी है. राजनैतिक छूटों के कारण भी महामारी की भयावहता के इस्तेमाल की प्रवृति देखी गयी है. कोरोना को लेकर स्पष्ट किया जाना चाहिए कि यदि यह एक खतरनाक महामारी है तो राजैतिक तौर पर इसका इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है.