Sunil Badal
भाषा, जाति, अल्पसंख्यक और क्षेत्रीयता की राजनीति भारत के लिए नई नहीं है, पर पिछले एक दशक से धर्म की राजनीति अधिक उभर कर आई है. सनातन की बहुसंख्यक राजनीति के सहारे सत्ता में अच्छी पकड़ बनाने वाली भाजपा हाल में तमिलनाडु के मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने सनातन को डेंगू मलेरिया की तरह घातक बताकर उन्मूलन करने के बयान का जवाब तो दिया, पर जी 20 के वैश्विक आयोजन को ध्यान में रखकर रणनीतिक चुप्पी साधे रखी. तमिलनाडु की राजनीति में ब्राह्मणवाद और हिंदी का विरोध आरंभ से ही राजनीतिक मुद्दा रहा है. डीएमके चीफ एमके स्टालिन के बेटे उदयनिधि स्टॉलिन ने ‘सनातन धर्म’ पर एक विवादित बयान के बाद से कांग्रेस और विपक्ष के गठबंधन में इंडिया में शामिल कई नेता भी असहज हो गए. बहुत सोच समझकर दिए गए बयान के पीछे द्रविड़ राजनीति की 50 वर्ष की पृष्ठभूमि है, जिसकी शुरुआत ईवी रामासामी नायकर पेरियार की अगुवाई में हुई थी.
उदयनिधि ने कहा था , “आइए हम तमिलनाडु के सभी 39 संसदीय क्षेत्रों और पुडुचेरी लोकसभा क्षेत्र में जीत हासिल करने का संकल्प लें. सनातन को गिरने दो, द्रविड़म को जीतने दो.” उन्होंने कहा वे पेरियार, अन्ना और कलाईगनार के फॉलोअर हैं. वे हमेशा सोशल जस्टिस के लिए लड़ेंगे और एक समान समाज का निर्माण करेंगे. वहां द्रविड़नाडु की मांग एक नारे के रूप में निकली थी “तमिलनाडु तमिल लोगों के लिए है” ये वही स्लोगन है, जो पेरियार ईवी रामासामी नायकर ने 1938 में पूरे देश में हिंदी शिक्षा अनिवार्य करने के विरोध में दिया था. शुरुआत में यह नारा सिर्फ तमिलभाषी क्षेत्रों तक सीमित था, लेकिन बाद में यह विरोध बढ़कर आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, केरल और कर्नाटक में फैल गया. ये वे राज्य हैं, जहां द्रविड़ भाषाओं में तमिल तेलुगु, मलयालम तथा कन्नड़ का प्रचलन है.
17 सितंबर 1879 को मद्रास में जन्मे पेरियार ने साल 1919 में कांग्रेस पार्टी से अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाले गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित होकर अपनी पत्नी नागमणि और बहन बालाम्बल को भी राजनीति में शामिल किया, जो उस समय ताड़ी की दुकानों में अपनी आवाज बुलंद करने वाली महिलाओं में सबसे आगे थीं. हालांकि ये सिलसिला ज्यादा नहीं चला और पेरियार ने 1925 में कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. 1926 में पेरियार ने ‘स्वाभिमान आंदोलन’ की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य जाति, धर्म और भगवान से रहित एक तर्कसंगत समाज का निर्माण करना था.
स्वाधीनता संग्राम में सपना तो था राष्ट्रभाषा बनाने का, लेकिन संविधान सभा की बहसों तक पहुंचते-पहुंचते हिंदी राजभाषा तक ही सिमट गई. संविधान लागू होने से पंद्रह साल तक का अवधि विस्तार सुविधा की राजनीति के लिए बढ़ता गया. संसदीय राजभाषा समिति की एक रिपोर्ट में उसने उच्च और तकनीकी शिक्षा का माध्यम बनाने के लिए हिंदी पर जोर देने और केंद्र की नौकरियों में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त करने और उसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के लिए गंभीर और ठोस प्रयास करने की भी सिफारिश की गई है.
देश में बाजार की भाषा बन चुकी हिंदी को आधिकारिक स्थान दिलाने का विरोध सबसे अधिक तमिलनाडु से होता रहा है. 1965 में हिंदी को राजभाषा के तौर पर लागू करने की तैयारी हो या फिर 1967 का लोहिया का अंग्रेजी हटाओ आंदोलन, 1986 में आई नई शिक्षा नीति हो या 2020 की शिक्षा नीति, हर बार हिंदी के खिलाफ सबसे तीखी राजनीतिक आवाज तमिलनाडु से ही उठी है. राज्य की विधानसभा ने हिंदी के विरोध में बाकायदा प्रस्ताव पारित किया है. जिसमें केंद्र सरकार से मांग की गई है कि हिंदी को लेकर जो मांग समिति ने की है, उसे लागू न किया जाए. राजभाषा समिति की रिपोर्ट के विरोध में वह चिदंबरम भी हैं, जिन्होंने गृहमंत्री रहते 2021 में राजभाषा हिंदी दिवस पर हिंदी को लोक की भाषा बताते हुए हिंदी में ही संवाद करने पर जोर दिया था. तब उन्होंने अपना पूरा भाषण हिंदी में दिया था.
भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग जब लोकसभा में उठी थी, तब उसका जवाब देते वक्त चिदंबरम ने अपने वक्तव्य की शुरुआत में एक पंक्ति भोजपुरी में भी बोली थी. सवाल यह है कि क्या तमिलनाडु अब भी उसी हिंदी विरोध की ग्रंथि के घेरे में है, जो अतीत में रही है. तमिलनाडु की यात्रा में यह विरोध जनता का नहीं, नेताओं का लगता है. उत्तर भारत के हजारों मजदूर, पर्यटकों के लिए चला रही दुकानें और उत्तर भारत से लेकर विदेशों में बसे दक्षिण भारतीय सभी हिंदी बोल रहे हैं. पहले दूरदर्शन के राष्ट्रीय प्रसारण तक को रोकने वाला तमिलनाडु अब इंटरनेट युग में फिल्मों के माध्यम से सारे भेदभाव मिटा रहा है. अब तमिलनाडु की नई पीढ़ी अपने बच्चों को बोलचाल की हिंदी सिखाने से परहेज नहीं कर रही. तमिलनाडु की इस पीढ़ी को पता है कि जिसे हिंदी प्रदेश कहा जाता है, वहां अंग्रेजी पढ़ाने के लिए जब निजी स्कूल और प्रतिष्ठान अध्यापक की खोज करते हैं तो उनकी पहली पसंद दक्षिण के युवा होते हैं. हिंदी विरोध में अपनी जवानी का जोश दिखाने वाली पीढ़ी को पता है कि हिंदी बेशक हकीकत में राजकाज की आधिकारिक भाषा अब तक नहीं बन पाई हो, लेकिन वह अखिल भारत के दरवाजे खोलती है.
हिंदी वाले जिस तरह अंग्रेजी को साम्राज्यवाद को पुष्पित-पल्लवित करने वाली भाषा मानते रहे हैं, दक्षिण, विशेषकर तमिलनाडु में एक दौर में हिंदी को भी उसी अंदाज में प्रस्तुत किया गया था. हिंदी ‘थोपने’ का नारा इसी का प्रतीक है. तमिल राजनीति की सीमा है कि अब भी वह हिंदी को लेकर उसी अवधारणा के तहत राजनीति करती है,जिसे आज की पीढ़ी समझने लगी है. हिंदी साम्राज्यवादी सोच की भाषा नहीं है, उसका नजरिया विस्तारवादी नहीं, बल्कि वह दिलों को जोड़ने का माध्यम है. तमिलनाडु की यह पीढ़ी इस तथ्य को समझने लगी है, जिसकी दृष्टि की सीमा तमिल सीमाओं से बाहर तक जा चुकी है. वैश्विक मंचों पर मोदी हिंदी में भाषण देकर इसे और मजबूत कर रहे हैं.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.